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________________ ४५० श्रीमद् विजयराजेन्द्रसूरि-स्मारक-प्रथ , जैनागम वेश स्थापित होने लगे थे। कई प्रदेशों का प्रायः पूर्णतया भारतीयकरण हो चुका था। इन प्रदेशों में भारतीय अनुश्रुतियाँ, धर्मकथाएं एवं लोककथाएं भी पहुंच चुकी थीं। वहाँ के प्राचीन मंदिरों के प्रस्तराङ्कनों में रामकथा के भी कई दृश्याङ्कन मिलते हैं। और प्रो० सिलवन लेवी आदि विशेषज्ञ विद्वानों का मत है कि उन प्रदेशों में प्राचीन काल में प्रचलित रामकथा के रूपका वाल्मीकीय रामायण की अपेक्षा जैन रामकथा के साथ अद्भुत सादृश्य है। इसका अर्थ है कि रविषेणके पद्मचरित के पूर्व ही जैनी रामकथा का भारतवर्ष में पर्याप्त प्रचार हो चुका था, और उसका श्रेय विमलार्य के पउमचरिय को ही हो सकता है। इसी कारण उसकी रविषेणके पद्मचरित की अपेक्षा अत्यधिक प्राचीनता भी स्वतः सिद्ध है। पउमचरिय के कर्ता के सम्प्रदाय के विषय में भी मतभेद रहे हैं । पीटसर्न साहब तो प्रारंभ में उसे एक बौद्ध कृति ही समझ बैठे थे, किन्तु एं. हरिदास शास्त्रीने उनका भ्रम निवारण किया। अब उसके पूर्णतया एक जैन कृति होने में तो कोई विवाद ही नहीं है, किन्तु स्वयं जैन विद्वानों में से कुछ उसे दिगम्बर तथा कुछ उसे श्वेताम्बर विद्वान की रचना प्रकट करते हैं। दिगम्बर विद्वान उसे रविषेण, स्वयंभू, आदि अनेक स्पष्टतः दिगम्बर विद्वानों द्वारा अपनाये जाने तथा उसीकी कथा को अपने आम्नाय में सर्वाधिक प्रचलित होने के कारण उसे दिगम्बर कृति कहते हैं। श्वेतांबर विद्वान् ग्रन्थकर्ता के गुरुवंश 'नाइल' का अपनी स्थविरावलियों में उल्लेख होने के कारण उन्हें श्वेतांबर मानते हैं । दोनों ही पक्षों को इस ग्रन्थ में अपनी-अपनी आम्नाय में प्रचलित मान्यताएं भी प्राप्त हो जाती हैं । परन्तु पउमचरिय में जहां अनेक बातें ऐसी पाई जाती हैं, जो दिगम्बर मान्यताओं के अनुकूल हैं, किंतु श्वेताम्बर मान्यताओं के प्रतिकूल हैं तो कुछ ऐसी बातें भी हैं जो श्वेतांबर मन्यताओं के अनुकूल हैं और दिगंबर मान्यताओं के प्रतिकूल हैं। साथ ही कुछ ऐसे भी तथ्य हैं जो दोनों ही परंपराकी मान्यताओं से विलक्षण हैं और दोनों में से किसी को मान्य नहीं हैं । इस का एक ही कारण है और वह यह कि पउमचरिय के कर्ता विमलार्य न दिगंबर थे न श्वेतांबर । चाहे वे संघभेद के पूर्व हुए हो अथवा थोड़े समय उपरान्त, उन्होंने स्वयं ही दोनों में से किसी भी एक सम्प्रदाय से संबंद्ध नहीं किया। वास्तव में एक ऐसे तीसरे दल के व्यक्ति थे जो संघ-विभाजन के विरुद्ध थे और सम ३७. देखिये लेखक की पुस्तक-' काम्बुज में भारतीय संस्कृति का प्रभाव', ३८. देखिये पीटरसन को हस्तलिखित ग्रंथ अनुसंधान रिपोर्ट । ३९. देखिये-अनेकांत, व, ५, कि. पू. ३०-४८, तथा व. ५ कि. १०-११ पृ. ३३५-४४,
SR No.012068
Book TitleRajendrasuri Smarak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYatindrasuri
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1957
Total Pages986
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
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