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________________ ४३८ श्रीमद् विजयराजेन्द्रसूरि-स्मारक-प्रथ दर्शन और गया, और तीसरी शती ई० के प्रारंभ तक विविध विषयके अनेक जैन ग्रन्थ निर्मित हो गये । कुछ आचार्यों ने आगम ज्ञान के कतिपय महत्त्वपूर्ण अंशों को भी यथावत् संकलित एवं लिपिबद्ध कर डाला और दूसरों ने उन पर टीकाएँ लिखनी भी प्रारंभ कर दी। इस जैन साहित्यिक प्रवृत्ति के अग्रणी आचार्यों एवं आद्य प्रणेताओं में कुन्दकुन्द, कुमार, शिवार्य, विमलार्य, गुणधर, धरसेन, पुष्पदंत, भूतबलि, उमास्वामि, कुन्दकीर्ति, काणभिक्षु, यतिवृषभ, समन्तभद्र, पादलिप्त, शिवशर्म आदि नाम उल्लेखनीय हैं। विमलार्य का प्राकृत 'पउमचरियं ' जैन परंपरा की सर्व प्राचीन ज्ञात एवं उपलब्ध लिखित रामकथा विश्वास की जाती है । स्वयं उसके लेखक के कथनानुसार उसकी रचना वीरनिर्वाण संवत् ५३० में अर्थात् सन् ईस्वी के प्रारंभ के तीन वर्ष पश्चात् हुई थी। ग्रन्थ की भाषा प्राकृत का सरल सुष्ठु जैन महाराष्ट्री रूप है। परिमाण लगभग एक सहस्र श्लोक है । ११८ उद्देशों या सर्गों में ग्रन्थ विभाजित है। उद्देशों के अन्तिम पद्यों को छोड़ कर प्रायः सर्वत्र आर्या छन्द का प्रयोग हुआ है। पउमचरिय जैन पुराणों की टकसाली शैली में रचा गया है और महाराष्ट्री प्राकृत का सर्व प्राचीन महाभाष्य माना जाता है। . महाराजा रामचन्द्र का मुनि अवस्था का नाम पद्म था, अतः जैन परम्परा में रामकथा का पद्मचरित या पद्मपुराण नाम ही रूढ़ हुआ। विमलार्य ने भी अपने ग्रन्थ का नाम 'पउमचरिय' ही प्रसिद्ध किया । यद्यपि उन्होंने कहीं-कहीं उसे राम या रामदेवचरित, राघवचरित आदि नामों से भी सचित किया है । स्वयं अपना नाम भी उन्होंने प्रत्येक उद्देश के अन्त में तथा अन्यत्र भी मात्र विमल' रूप में दिया है। केवल ग्रन्थ की अन्तिम पुष्पिका में अपने आप को विमलार्य या विमलाचार्य (विमलायरिएण ) तथा उसके पूर्व प्रशस्ति पद्य में विमलसूरि ( सूरिविमलेणं ) कहा है। इसी प्रशस्ति के अनुसार राहु नामक आचार्य के शिष्य ' नाइलकुलवंशनंदिकर' विजय थे और इनके शिष्य प्रन्थकर्ता विमल थे । किन्तु इसके उपरान्त ही दीगई पुष्पिका में विजय का कोई उल्लेख २. पंचव वाससया दुलमाए तीस वरस संजुत्ता । वीरे सिद्धमवगए तओ निबद्धं इमें चरियं ॥ ११८ । १०३. ३. पउमचरिय का डा. जैकोवी द्वारा संपादित संस्करण सन १९१४ ई० में श्री जैनधर्म प्रसारक सभा, भावनगर से प्रकाशित हुआ था । सन् १९३६ ई. में इसके प्रथम चार उद्देश अंग्रेजी भूमिका एवं अनुवाद सहित प्रो. वी. एम शाह ने सूरत से प्रकाशित किये थे । ४. राहू नामायरिओ ससमयपरसमयगहियसम्भावो । विजयोः य तस्स सीसो नाइलकुलवंसनन्दियरो ॥ सीसेण तस्स रइयं राहवचरिय तु सूरिविमलेणं । सोऊण पुन्वगए नारायणसीरिवरियाई ॥
SR No.012068
Book TitleRajendrasuri Smarak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYatindrasuri
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1957
Total Pages986
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
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