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________________ भीमद् विजयराजेन्द्रसूरि-स्मारक-प्रय जिन, जैनागम मिलता । अतः पूर्वकालीन प्रन्थकारों और टीकाकारोंने भद्रबाहु के नाम से अभिहित प्रत्येक वस्तु को श्रुतकेवली भद्रबाहु के साथ सम्बद्ध कर दिया है। किन्तु विश्लेषण करने से आधुनिक विद्वानों को भद्रबाहु नाम के दो व्यक्ति होने की संभावना हुई और दूसरे वे भद्रबाहु जिन्हें वराहमिहिर का भाई बतलाया गया है। किन्तु उनके भी जन्म, गुरु, अन्त, शिष्यपरम्परा आदि का कोई उल्लेख नहीं मिलता। और मिले भी तो कैसे, जब प्राचीन काल से ही यह भूल चली आती है। द्वितीय भद्रबाहु किन्तु दिगम्बर पट्टावलियों में श्रुतकेवली भद्रबाहु के सिवाय एक दूसरे भद्रबाहु का भी नाम आता है । भद्रबाहु के पश्चात् होनेवाले अंगज्ञानियों की परम्परा में उनका नम्बर उन्नीसवां है। उनके शिष्य लोहार्य के पश्चात् दिगम्बर परम्परा में अंगज्ञान लुप्त हो गया । किन्तु सभी जगह भद्रबाहु नाम नहीं मिलता । भद्रबाहु के स्थान में धवला टीका में जसबाहु, जयधवला में जहबाहु और श्रुतावतार में जयबाहु नाम आता है । केवल आदिपुराण और नन्दिसंघ की प्राकृत पट्टावली में भद्रबाहु नाम आता है । सरस्वती गच्छ की पट्टावली इन्हीं भद्रबाहु से प्रारम्भ होती है, किन्तु उसमें भद्रबाहु के शिष्य का नाम गुप्तिगुप्त आता है, जब कि अंगज्ञानियों की परम्परा में भद्रबाहु द्वितीय के शिष्य का नाम लोहार्य आया है। लोहार्य और गुप्तिगुप्त के एक ही व्यक्ति होने का कोई प्रमाण हमारे देखने में नहीं आया । उक्त पट्टावली में इन द्वितीय भद्रबाहु को ब्राह्मण लिखा है। उसके अनुसार विक्रम सम्वत् ४ तदनुसार ईस्वी पूर्व ५३ में वे आचार्यपद पर आसीन हुए थे । अतः उनका समय ईस्वी प्रथम शताब्दी होता है । इस तरह दिगम्बर परम्परा के इन द्वितीय भद्रबाहु और श्वेताम्बर परम्परा के वराहमिहिर के भाई द्वितीय भद्रबाहु के बीच में चारसौ वर्षों से भी अधिक छेदसूत्रकार व नियुक्तिकार भद्रबाहु भिन्न २ होने चाहिए: १. नियुक्तिकार भद्रबाहु के समय के सम्बन्ध में मुनि पुण्यविजयजीने सबसे अच्छा प्रकाश डाला है । उन्होंने प र भद्रबाहु को ६ठी शताब्दी का माना था। पर उसके बाद जैसलमेर-भन्डार से दशवकालिक की प्राचीन चूर्णि के मिलने से उन्होंने निर्यक्ति कार भद्रबाह को विक्रमीय द्वितीय शताब्दी से पहले का मान लिया है, अतः वे भद्रबाह दिगम्बर परम्परा के द्वितीय भद्रबाह जिन का समय सरस्वती गच्छ की पट्टावली के अनुसार प्रथम शताब्दी ईस्वी है, हो सकते हैं । बराहमिहर के भ्राता भद्रबाहु ६ ठी शताब्दी के ही सम्भव हैं, इसलिए अब नए अनुसंधान के अनुसार भद्रबाहु दो के स्थान पर तीन हुए माने जाना चाहिए, और तभी सारी समस्याओं का हल ठीक से हो सकता है। भद्रबाहु संहिता व उवसग्गहरं स्तोत्र तृतीय भद्रबाह के हैं इस सम्बन्ध में मुनि पुण्यविजयजी के संपादित बृहत्कल्प सूत्र के छठे भाग के आमुख व ग्रन्थकार परिचयादि दृष्टव्य हैं । श्रुतकेवली भद्रबाहु का जन्म पौण्ड्रवर्द्धन बंगाल का ही ठीक लगता है । --संपा. श्री नाइंटाजी.
SR No.012068
Book TitleRajendrasuri Smarak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYatindrasuri
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1957
Total Pages986
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
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