SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 477
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३९४ श्रीमद् विजयराजेन्द्रसूरि - स्मारक -ग्रंथ दर्शन और अल्प ) से या मानसिक व्याधियों से आक्रान्त होने पर उनसे मुक्त होने की सतत चिन्ता करना और अरोग होने पर भविष्यकाल में रोगाक्रान्त नहीं होने की चिन्ता करते रहना रोगचिन्ता - आर्तध्यान है । (४) निदान - आर्तध्यान: - देव सम्बन्धी रूप, गुण, ऋद्धि का वर्णन देख या सुन कर या चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेवादि की ऋद्धि का वर्णन सुन कर उसे प्राप्त करने का तथा अपने किये तप और पालन किये संयम के फलरूप में उक्त देव एवं मनुष्य-सम्बन्धी सुख मिलने का निदान करना निदान - आर्तध्यान है। आर्तध्यान के चार लक्षण हैं-आक्रंदन, शोचना, तेपनता और परिवेदना । रौद्रध्यान:- हिंसा, असत्य, चोरी और द्रव्यरक्षा में लीन रहना रौद्रध्यान है । अथवा छेदन, भेदन, काटना, मारना, वध करना, दमन करना इत्यादि कार्यों में जो रागभाव रखता है और जिसमें दयाभाव नहीं है, उस पुरुष का जो ध्यान सो रौद्रध्यान है । रौद्रध्यान के भी चार भेद हैं (१) हिसानुबन्धी- रौद्रध्यान - कर्मवश दूसरे जीव दुःखी होते हैं, तब उन्हें देख कर प्रसन्न होना । निज स्वार्थवश या कौतुकवश दुःख देना, सताना या ऐसे उपाय करना कि जिससे वे विशेष दुःखी होवे | उन्हें दुःख दे कर आप प्रसन्न होना । असहाय जीवों को मारना या मरवाना और मारनेवालों के कार्यों की अनुमोदना कर प्रसन्न हो कर दूसरों को ऐसे निकृष्टतम कार्यों को करने की प्रेरणा देना, दुःखी प्राणियों को दुःखी देख कर ईर्ष्या करना और हिंसा के कार्यों में लीन रहना हिंसानुबन्धी रौद्रध्यान है । ( २ ) मृषानुबन्धी- रौद्रध्यान: - जिस वचन में केवल असत्य भाषा का ही व्यवहार होता हो उसे मृषावाद कहते हैं । असत्य भाषण- हलाहल झूठ बोल कर दूसरों को व्यथित करना | परवचन- धूर्त्तता कर प्राणियों को भूलावे में डाल कर ठग लेना और उनको दुःखी देख कर निजपरवंचन कला पर गर्व करना । परप्रतारणता - दूसरों को अकारण वध - बंधन में डाल कर क्रोधान्ध हो मारना । विश्वासघात - निज भोगेच्छाओं को सन्तुष्ट करने के लिये दूसरों को अपनी श्रेष्ठता दिखला कर विश्वास पैदा करके अन्त में धोखा देना । यह मृषानुवन्धी रौद्रध्यान है ! २४ अट्टरसणं ज्झाणस्स चतारी लक्खणा पण्णत्ता । तं जहा-१ कंदणय । २ सोयणया । ३ तिप्पाणया । विलवणया । २५ रुद्द झाणे चउब्विहे पण्णत्ते । तं जहा -१ हिंसाणुबंधी । २ मोसाणुबन्धी । ३ तेणानुबंधी । ४ बारक्खणाणुबन्धी |
SR No.012068
Book TitleRajendrasuri Smarak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYatindrasuri
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1957
Total Pages986
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy