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________________ ३९२ श्रीमद् विजयराजेन्द्ररि-स्मारक-प्रय दर्शन और (१) इन्द्रियप्रतिसंलीनताः-स्पर्श, रसना, घ्राण, चक्षु और श्रोत्र इन पांचों इन्द्रियों को उनके २३ विषयों में प्रवृत्त होने से रोकना और मिले हुये विषयों से रागद्वेष रहित होना इन्द्रियप्रतिसंलीनता है। इसके स्पर्शेन्द्रियप्रति संलीनता, रसनेन्द्रियप्रतिसंलीनता, घ्राणेन्द्रियप्रतिसंलीनता, चक्षुरिन्द्रियप्रतिसंलीनता और श्रोत्रेन्द्रियप्रतिसंलीनता, ये पांच भेद हैं। (२) कषायप्रतिसंलीनता:-क्रोध, मान, माया और लोभ ये चार कषाय हैं । इसके उदय देनेवाले कारणों से परे रहना और उदित होने पर विफल बनाने का प्रयत्न करना कषायप्रतिसंलीनता है। इसके क्रोधप्रति संलीनता, मानप्रतिसंलीनता, मायाप्रति. संलीनता और लोभप्रतिसंलीनता ये चार प्रकार हैं । (३) योगप्रतिसंलीनता:-मन, वचन और काया की योग संज्ञा है । अकुशल वाणी और अकुशल मनका अवरोध कर कुशलवाणी और कुशल मन की प्रवृत्ति तथा शरीर के अंगोपांगों से व्यर्थ ही कुचेष्टा नहीं करना योग प्रतिसंलीनता है ! इसके मनयोग. प्रतिसंलीनता, बचनयोगप्रतिसंलीनता और काययोगप्रतिसंलीनता ये तीन भेद हैं ! (४) विविक्तशय्यासनसेवनताः-आरामस्थलों में, उद्यानों में तथा देवकुलों आदि में और स्त्री, पशु, पंडगसंसक्त रहित गृहों में सोना, बैठना, ध्यान करना विविक्तशय्यासनसेवनता है । इसका विशेष वर्णन भगवतीसूत्र के २५ श. ७ उः में देखना चाहिये । ६ धारणा-' अवगतार्थविशेषधारणं धरणा ।' भ. सू.। याने जानी हुई बात को विशेषरूप से हृदय में धारण करना है । ध्येय देश पर चित्त को संस्थापित करके उसे एकाग्र करना यह धारणा है। चित्त सदा चंचल वृत्ति है। धारणा योग की साधना होने पर यह चित्त चंचल वृत्ति से दूर हो कर एकाग्रचित्त होता है याने चपलता का क्षय होता है। जब चपलता का संक्षय होता है चित्त एकाग्रचित्त होकर शुभ की ओर बढ़ता है। जैनागमों में एक पुद्गल विशेष पर, सूक्ष्म से सूक्ष्म पदार्थ पर दृष्टि को स्थिर कर के मन की एकाग्रता सम्पादनार्थ धारणा का समर्थन किया गया है। २० तिविहे जोग पण्णत्ते तं जहा-'मणजोगे, वयजोगे, कायजोगे' (श्रीस्थानाङ्गसूत्र ३ स्थान ) २१ श्रीदशाश्रुतस्कंदसूत्र में-एगराइयं भिक्खुपडिमं पडिवन्नस्स अणगारस्स निच्च वोसहकायेणं जाव अहियासेइ। कप्पइ से णं अट्टमेणं भत्तेणं अप्पाणएणं बहियागामस्स वा जाव रायहाणिस्स वा इसिंपन्भारगएणं काएणं एगपोग्गलढितीएदिछीए अणिमिसनयण अहापणिहिंगएहिं गुत्तिहिं सबिदिएहिं दो वि पाए साहड्ड वग्धारिय पाणिमस्स ठाणं ठाइत्तए
SR No.012068
Book TitleRajendrasuri Smarak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYatindrasuri
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1957
Total Pages986
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
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