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श्रीमद् विजयराजेन्द्रसूरि-स्मारक-ग्रंथ दर्शन और २ अनुविधिभाषण, क्रोधप्रत्याख्यान, लोभप्रत्याख्यान, भयप्रत्याख्यान और हास्यप्रत्याख्यान, ये पांच भावनाएँ द्वितीय महाव्रत की हैं।
३ अनुवीचि अवग्रह याचना, अभीक्ष्णावग्रहयाचना, अवमहावधारणा, साधर्मिका. वग्रह याचना और अनुज्ञापित पानभोजन, ये पांच भावना तृतीय महाव्रत की हैं । .. ४ स्त्री-पशु-नपुंसकसेवित शय्या-आसन त्याग, स्वीकथावर्जन, स्त्रीअंगप्रत्यंगदर्शनत्याग, मुक्त-रति-विलास-स्मरणत्याग और प्रणीतरस-पौष्टिक आहार त्याग, ये पांच भावनाएँ चतुर्थ महाव्रत की है।
५ श्रोत्र, चक्षु, नाण, रसना और स्पर्शेन्द्रिय जन्य शब्द, रूप, रस, गन्ध और स्पर्श के विषय में अनासक्ति-राग का त्याग, ये पांच भावनाएँ पांचवें महाव्रत-अपरिग्रह व्रत की है ।
इस तरह उक्त पांच यमों ( सार्वभौम महाव्रतों ) की पांच पांच भावनाएं हैं। वस्तुतत्व के पुनः पुनः अधिचिन्तन करने को भावना कहते हैं।
जिस प्रकार खड़ा किया हुआ तम्बू बिना आधार( तनें ) लगे नहीं ठहर कर, गिर जाता है, वैसे ही महाव्रतों को ग्रहण करने के पश्चात् उसे भावनारूप तने नहीं लगेंगे तो संभव है साधक साधना से च्युत हो जाय, अतः उक्त भावनाओं का अभ्यास साधक फो करना अत्यावश्यक माना गया है ।।
उक्त पांचों महाव्रतों के विषय में जैनागम और पातंजलयोगदर्शन में प्रायः वर्णन. साम्यता है। योग में अधिकार प्राप्त करने की इच्छा रखनेवालों का उक्त अहिंसादि पांच
९ अणुवितिभासणया, कोहविवेगे. लोभविवेगे, भयविवेगे, हासविवेगे।
१० उग्गह अणुणावणया, उग्गहसोमजाणणया, सयमेव, उग्गहं, अणुगिण्हणया । साहम्मियउग्गहं, अणण्णविय परिभुंजणया, साहारमभत्तानं अणुगविय परिभुंजण या ।
११ इत्थीणं पसुपंडगसंसत्तगसयणासणवझणया, इत्थी कहाविवज्नणया, इत्थीणं इन्द्रियाणमालोयणवजणया, पुवरयपुव्वकीलियाणं अगणुसरणथा। पणीताहारवजणया। १२ सोइंदियरागोवरई, चक्खिदियरागोवरई, पाणिदियरागोवरई, जिभिंदियरागोवरई, फासिंदियरागोवरई ।
-(श्रीसमवायांगसूत्र ) १३-" एसा सा भगवति अहिंसा जासा भीयाण विव सरणं पक्खीण पिव गमणं, तिसियाणं पिव सलीलं खुहियाणं पिव असणं समुद्दमज्झमेव पोतवहणं, चउप्पयाणं व आसमपयं, दुहट्टियाणं च ओसहिचलं, अडविमझे विसस्थगण " आदि-(श्रीप्रश्नव्याकरण सूत्र )
___ " तत्र हिंसा सर्वथा सर्वदा सर्वभूतानामभिद्रोहः । उत्तरे च यमनियमास्तन्मूलास्तसिद्धिपरतयैव तत्प्रतिपादनाय प्रतिपाद्यन्ते । तदवदातरूपकरणायैवोपादीयन्ते । तथा चोक्तम्-स खल्वयं ब्राह्मणो यथा यथा व्रतानि बहूनि समादित्सते तथा तथा प्रमादकृतेभ्यो हिंसानिदानेभ्यो निवर्तमानः तामेवावदातरूपां अहिंसां करोति "
(व्यासकृत भाष्य २-३०)।