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________________ ३७८ भीमद् विजयराजेन्द्रसूरि-स्मारक-ग्रंथ दर्शन और आदिकाल से भारत के समान चीन के दो भाग रहे हैं-एक उत्तरापथ और दूसरा दक्षिणापथ। चीनी उत्तरापथ के साथ हमारा सम्पर्क स्थलमार्ग से था और दक्षिणापथ से जलमार्ग से । समुद्रमार्ग विक्रम से पूर्व खुल चुका था । हमारे विद्वान् और साहसी व्यापारी सुमात्रा, जावा, थाई, कम्बोज और चम्पा होते हुए दक्षिण चीन पहुंचा करते थे। विक्रम की दूसरी शताब्दी में चम्पास्थित वोकन के संस्कृत शिलालेख हमारे साक्षी हैं । आज हम जो कुछ आपको सुना रहे हैं उसका आधार चीन के प्राचीन इतिहास हैं। हमारे अपने साहित्य में एक भी पंक्ति नहीं मिलती। कुछ हमारी इतिहास के प्रति उदासीनता वा कुछ करालकाल की कृपा जिसके कारण सहस्रों, लाखों ग्रन्थ पिछले एक सहस्र वर्षों में प्रकृति अथवा बर्बर आततायियोंने नाश किए । ___ आज का भारतीय निरुत्साह, भूमिबद्ध, स्थापर सा, जड़बुद्धि, दूसरों का मुंह ताकने. बाला प्रतीत होता है। प्राचीन भारत के निवासी विशदबुद्धि, नये मागों के अन्वेषक, असभ्य देशों को सभ्य बनानेवाले, प्रकृति के उपासकों को आध्यात्मिकता के उपदेश सुनाने वाले, निर्मल और विश्व के गौरव थे। हम में उनका रक्त विद्यमान है, किन्तु उनकी प्रखरता और ज्वाला मन्द हो चुकी है। जिस समय भारत के वणिकपांत शिल्पियों, शिल्परत्नों, विद्याधनियों तथा विद्याधन से लदकर द्वीपद्वीपान्तरों में ज्ञान और विज्ञान का प्रकाश फैलाने के लिए मासानुमास, वर्षानुवर्ष गुजरात, कैरल, चोल, उडीसा और बंग के समुद्रतटों से प्रस्थान करते थे, वह समय भारतीय मस्तिष्कों में प्रातः सायं स्मरणार्थ दिव्याक्षरों में अंकित कर देना चाहिए। भारत आलस्य को दूर करे, अन्धतमस् से उन्मग्न हो, कांटों और पत्थरों को हटाता हुआ, गरजता हुआ आगे बढ़े । यही तो हमारे पूर्वजों का इतिहास है। अब चीन के भारतीय धार्मिक विजेताओं, नहीं-नहीं, चीन के भारतीय धार्मिक गुरुओं में से कुछ के चरित्र संक्षेपतः आपको सुनाते हैं। विक्रम की तीसरी शताब्दी में यानिक ब्राह्मण कुलोदभूत पण्डित विघ्नने देशदेशान्तरों में पर्यटन करते हुए लंका से धर्मपद नामक प्रसिद्ध ग्रन्थ को हस्तगत किया और वहां से चीन को प्रस्थान किया। यह ग्रन्थ अभी तक विद्यमान है। इसमें शिक्षा, श्रद्धा, शील, भावना, यमक, प्रमादचित्तादि तथा निर्वाण, संसार और सौभाग्यान्त ३६ अध्याय हैं । विक्रमाब्द ३२२ में वु. वाइ और शू इन तीनों राजवंशों का ह्रास होकर पाश्चात्य चिन वंश का उदय हुआ। इस वंश के आधी शताब्दी के राज्य में भारतीय विद्वान् और
SR No.012068
Book TitleRajendrasuri Smarak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYatindrasuri
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1957
Total Pages986
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
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