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________________ संस्कृति भारतीय संस्कृति आधार । ३७५ बड़ा काम भगवान् व्यास का था । अपने समय में पुराणों के ' संग्रह ' या ' संपादन ' में उनका बड़ा हाथ था— यही पौराणिक प्रसिद्धि है । 'पुराण' शब्द का अर्थ ही उपर्युक्त प्राग्वैदिक संस्कृति की ओर निर्देश करता है । उनको सहयोग उस समय के अनेकानेक ' ऋषि-मुनियों' ने दिया होगा, जिनमें से अनेकों की धमनियों में व्यास के सदृश ही दोनों संस्कृतियों का रक्त बह रहा था और प्रायः इसी लिए उनका विश्वास दोनों संस्कृतियों के समन्वय में था । यह समन्वित पौराणिक संस्कृति जो कि बहुत अंशो में वर्तमान भारतीय संस्कृति मेरुदण्ड के समान है, न तो केवल वैदिकेतर ही कही जा सकती है; न उसको हम यूरोपीय विद्वानों के अभिप्राय से ' आर्य संस्कृति ' या ' अनार्य - संस्कृति ' ही कह सकते हैं । उसकी तो समान रूप से उपर्युक्त दोनों धाराओं में सम्मान की दृष्टि होनी चाहिए । यही सनातन धर्म की दृष्टि है । इसी लिए यूरोपीय प्रभाव से हमारे देशके कुछ लोगों में आर्य, अनार्थ, वैदिक, अवैदिक शब्दों को लेकर जो एक प्रकार का क्षोभ उत्पन्न होता है, वह वास्तव में निराधार और अहेतुक है । समन्वित धारा की प्रगति और विकास गंगा-यमुना रूपी वैदिक तथा वैदिकेतर धाराओं के संगम से बनी हुई भारतीय संस्कृति की यह धारा अपने ' ऐतिहासिक ' काल में भी स्वभावतः स्थिर तथा एक ही रूप में नहीं रह सकती थी । इस लम्बे काल में भी तत्कालीन विशिष्ट परिस्थितियों और आवश्यकताओं से उत्पन्न होनेवाली नवीन धाराओं से वह प्रभावित होती हुई और क्रमशः उन धाराओं को आत्मसात् करती हुई, नवीनतर गम्भीरता, विस्तार और प्रवाह के साथ आगे बढ़ती रही है । वैदिक और वैदिकेतर संस्कृतियों का प्रारम्भिक समन्वय केवल नाम - मात्र में ही था । उन दोनों में अनेकानेक स्वार्थों और बद्धमूल परम्पराओं के कारण अनेक प्रकार के वैषम्य, गंगा की धारा में प्रारम्भ में बहते हुए परस्पर टकरानेवाले टेढ़े-मेढ़े शिलाखण्डों के समान, चिरकाल तक संयुक्त - धारा में भी वर्तमान रहे । परस्पर संघर्ष के द्वारा ही उन्होंने अपनी विषमता के रूप को धीरे-धीरे दूर किया है और भारतीय संस्कृति की धारा की महिमा को बढ़ाया । यह क्रिया अब भी जारी है और जारी रहेगी । इसी में भारतीय संस्कृति की प्रगतिशीलता है । उपर्युक्त वैषम्यों में एक बड़ा भारी वैषम्य उस बड़ी भारी मानवता के कारण था, जिसको उस समय की राजनैतिक, सामाजिक तथा धार्मिक परिस्थितियोंने सब प्रकार से दलित कर रखा था । भारतवर्ष के आगे के इतिहास में पारस्परिक क्रिया-प्रतिक्रियाओं द्वारा उत्पन्न
SR No.012068
Book TitleRajendrasuri Smarak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYatindrasuri
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1957
Total Pages986
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
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