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________________ ३७४ श्रीमद् विजयराजेन्द्रसूरि-स्मारक-प्रथ दर्शन और उपसंहार ऊपर के अनुसंधान से यह स्पष्टतया प्रतीत हो जाता है कि भारतीय संस्कृति के मौलिक आधारों के विचार में हम उसकी प्रधान प्रवृत्तियों को, जिनमें अनेक परस्पर-विरोधी द्वन्द्वा. त्मक प्रवृत्तियाँ भी हैं, कभी नहीं समझ सकते, जब तक हम यह न मान लें कि उनके निर्माण और विकास में वैदिक संस्कृति की धारा के साथ-साथ एक वैदिकेतर या प्राग्वैदिक धारा का भी बड़ा भारी हाथ रहा है। दोनों धाराओं के समन्वय में ही हमें उन मौलिक आधारों को ढूँढना होगा। वैदिक संस्कृति के समान ही वह प्राग्वैदिक संस्कृति भी हमारे अभिमान और गर्व का विषय होनी चाहिए। आर्यत्व के अभिमान के पूर्वग्रह से युक्त, और भारत में अपने साथ सहानुभूति का वातावरण उत्पन्न करने की इच्छा से प्रवृत्त यूरोपीय ऐतिहासिकों के प्रभाव से उत्पन्न हुई यह भावना कि-भारतीय सभ्यता का इतिहास केवल वैदिक काल से प्रारम्भ होता है, हमें बरबस छोड़नी पड़ेगी। भारतीय संस्कृति की आध्यात्मिकता, त्याग की भावना, पारलौकिक भावना, अहिंसावाद जैसी प्रवृत्तियों की जड़, जिनके वास्तविक और संयत रूप का हम को गर्व हो सकता है, हमको वैदिक संस्कृति की तह से नीचे तक जाती हुई मिलेंगी। वैदिक संस्कृति का बहुत ही बड़ा महत्व है, जिसके विषय में एक स्वतन्त्र लेख की आवश्यकता है, तो भी भारतीय जनता के समुद्र में उसका स्थान सदा से एक द्वीप जैसा रहा है । मूक जनता की अवस्था के अध्ययन से तथा महाराष्ट्र आदि प्रदेशों में वैदिकों की अपनी पृथक् अवस्थिति से यही सिद्धान्त निकलता है । वैदिक और प्राग्वैदिक संस्कृतियों का समन्वय - वैदिक और प्राग्वैदिक संस्कृतियों का उक्त समन्वय अदृष्टविधया बहुत प्राचीन काल से ही प्रारम्भ हो गया था। परस्पर आदान-प्रदान से दोनों धारायें आगे बढ़ती हुई अन्त में पौराणिक हिन्दू धर्म के रूप में समन्वित हो कर आपाततः एक धारा में ही विकसित हुई। इस समन्वय का प्रभाव धर्म, आचार-विचार, भाषा और रक्त तक पर पड़ा। इसके प्रमाणों की यहां आवश्यक नहीं है। इसी समन्वय को दृष्टि में रखकर, जैसा हमने ऊपर कहा है, निगमागम धर्म नाम की प्रवृत्ति हुई । इसीके आधार पर सनातनी विद्वान् बहुत ही ठीक कहते हैं कि हमारे धर्म का आधार केवल ' श्रुति ' न हो कर श्रुति-स्मृति-पुराण' हैं। पौराणिक अनुश्रुति के आधार पर यह कहा जा सकता है कि इस समन्वय में बहुत
SR No.012068
Book TitleRajendrasuri Smarak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYatindrasuri
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1957
Total Pages986
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
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