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________________ संस्कृति भारतीय संस्कृति के आधार । ३६७. तीसरी दृष्टि उन लोगों की है जो भारतीय संस्कृति को देश के किसी विशिष्ट एक या अनेक सम्प्रदायों से परिमित या बद्ध न मान कर समस्त सम्प्रदायों में एक सूत्र रूप से व्यापक, अत एव सबके अभिमान की वस्तु, काफी लचीली और सहस्रों वर्षों से भारतीय परम्परा से प्राप्त संकीर्ण साम्प्रदायिक भावनाओं और विषमताओं के बिंब को दूर करके राष्ट्र में एकात्मकता की भावना को फैलाने का एक मात्र साधन समझते हैं । स्पष्टतः इसी दृष्टि से भारतीय संस्कृति की भावना देश की अनेक विषम समस्याओं के समाधान का एकमात्र साधन हो सकती है । दूसरी ओर, लक्ष्य या उद्देश्य की दृष्टि से भी, भारतीय संस्कृति के सम्बन्ध में लोगों में विभिन्न धारणाएं फैली हुई हैं । कोई तो इसको प्रतिक्रियावादिता या पश्चाद्गामिता का ही पोषक या समर्थक समझते हैं । संस्कृतिरूपी नदी की धारा सदा आगे को बहती है, इस मौलिक सिद्धान्त को भूल कर वे प्रायः यही स्वप्न देखते हैं कि भारतीय संस्कृति के आन्दोलन के सहारे हम भारतवर्ष की सहस्रों वर्षों की प्राचीन परिस्थिति को फिर से वापिस ला सकेंगे। पश्चाद्गामिता की इसी विचार-धारा के कारण देश का एक बड़ा प्रभाव - सम्पन्न वर्ग भारतीय संस्कृति की भावना का घोर विरोधी हो उठा है, या कम से कम उसको सन्देह की दृष्टि से देखने लगा है । दूसरे वे लोग हैं, जो भारतीय संस्कृति को देश के परस्पर विरोधी तत्त्वों को मिलानेवाली, गंगा की सतत अग्रगामिनी तथा विभिन्न धाराओं को आत्मसात् करनेवाली धारा के समान ही सतत प्रगतिशील और स्वभावतः समन्वयात्मक समझते हैं । प्राचीन परम्परा से जीवित सम्बन्ध रखते हुए वह सदा आगे ही बढ़ेगी । इसीलिए उसे संसार के किसी भी वस्तुतः प्रगतिशील वाद से न तो कोई विद्वेष हो सकता है, न भय । उपर्युक्त विभिन्न विचार-धाराओं के प्रभाव के कारण ही भारतीय संस्कृति के आधार के विषय में भी विभिन्न मत प्रचलित हो रहे हैं । साम्प्रदायिक दृष्टिकोण इस सम्बन्ध में जनता में सब से अधिक प्रचलित मत विभिन्न सम्प्रदायवादियों के हैं। लगभग दो-ढाई सहस्र वर्षों से इन्हीं सम्प्रदायवादियों का बोलबाला भारत में रहा है। इन सम्प्रदायों के मूल में जो आर्थिक, जातिगत, समाजगत या राजनैतिक कारण थे, उनका विचार यहां हम नहीं करेंगे; तो भी इतना कहना अप्रासंगिक न होगा कि इस दो-ढाई सहस्र वर्षों के काल में भी भारतवर्ष की राजनैतिक तथा सामाजिक परिस्थितियों में इन सम्प्रदायवादियों का काफी हाथ रहा है ।
SR No.012068
Book TitleRajendrasuri Smarak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYatindrasuri
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1957
Total Pages986
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
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