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________________ ३६६ भीमद् विजयराजेन्द्रसरि-स्मारक-प्रय दर्शन और इसका अभिप्राय यही है कि किसी देश या समाज के विभिन्न जीवनव्यापारों में या सामाजिक सम्बन्धों में मानवता की दृष्टि से प्रेरणा प्रदान करनेवाले उन-उन आदशों की समष्टि को ही संस्कृति समझना चाहिए । समस्त सामाजिक जीवन की समाप्ति संस्कृति में ही होती है । विभिन्न सभ्यताओं का उत्कर्ष तथा अपकर्ष संस्कृति के द्वारा ही नापा जाता है । उसके द्वारा ही लोगों को संघटित किया जाता है। इसीलिए संस्कृति के आधार पर ही विभिन्न धर्मों, सम्प्रदायों और आचारों का समन्वय किया जा सकता है। - विद्वानों का इस विषय में ऐकमत्य ही होगा कि ऊपर के अर्थ में ' संस्कृति' शब्द का प्रयोग प्रायः बिलकुल नया ही है । भारतीय संस्कृति के विषय में विभिन्न दृष्टियाँ संस्कृति के विषय में सामान्य रूप से उपर्युक्त विचार के होने पर भी, भारतीय संस्कृति की भावना के विषय में बड़ी गड़बड़ दिखाई देती है। इस विषय में देश के विचारकों की प्रायः परस्पर विरुद्ध या विभिन्न दृष्टियां दिखाई देती हैं। ___ इस विषय में अत्यन्त संकीर्ण दृष्टि उन लोगों की है, जो परम्परागत अपने-अपने धर्म या सम्प्रदाय को ही ' भारतीय संस्कृति' समझते हैं। संस्कृति के जिस व्यापक या समन्वयात्मक रूप की हमने ऊपर व्याख्या की है, उसकी ओर उनका ध्यान ही नहीं जाता है । ' कल्याण ' पत्रिका ने कुछ वर्ष पहले एक · संस्कृति-विशेषांक ' निकाला था। उस में लेख लिखने वाले अधिकतर ऐसे ही सज्जन थे, जिनको कदाचित् यह भी स्पष्ट नहीं था कि प्राचीन ' धर्म, ' ' सम्प्रदाय ' ' सदाचार ' आदि शब्दों के रहने पर भी देश में 'संस्कृति ' शब्द के इस समय प्रचलन का मुख्य लक्ष्य क्या है। दूसरी दृष्टि उन लोगों की है, जो भारतीय संस्कृति को, भारतान्तर्गत समस्त सम्प्रदायों में व्यापक न मानकर, कुछ विशिष्ट सम्प्रदायों से ही संबद्ध मानते हैं । इस दृष्टि वाले लोग यद्यपि उपर्युक्त पहली दृष्टिवालों से काफी अधिक उदार हैं, तो भी देखना तो यह है कि उपर्युक्त विचार-धारा से प्रभावित भारतीय संस्कृति में वर्तमान भारत की कठिन सांप्रदायिक समस्याओं के समाधान को तथा साथ ही संसार की सतत प्रगतिशील विचार-धारा के साथ भारतवर्ष को आगे बढ़ाने की कहां तक क्षमता है । यदि नहीं, तब तो यही प्रश्न उठता है कि कहीं भारतीय संस्कृति के इस नवीन आन्दोलन से देश को लाभ के स्थान में हानि ही न उठानी पड़े ! हमें तो ऐसा प्रतीत होता है कि कुछ ही दिनों पहले तक सबसे सम्मानित 'भारतीय संस्कृति' शब्द उपर्युक्त विचार-धारा के कारण ही अब अपने पद से नीचे गिरने लगा है।
SR No.012068
Book TitleRajendrasuri Smarak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYatindrasuri
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1957
Total Pages986
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
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