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________________ श्रीमद् विजयराजेन्द्रसूरि-स्मारक -ग्रंथ दर्शन और जब श्रावकों में प्रौढत्व का पदार्पण होने लगता तब वे इस प्रकार का विचार किया करते थे कि - " मैं दीक्षा लेने में तो असमर्थ हूं । किन्तु मुझे अब यह उचित है कि मैं अपने ज्येष्ठ पुत्र को उत्तराधिकारी बना कर एकान्त साधना करूं।" इसी प्रकार सर्वप्रथम धर्मोपदेश सुनकर श्रावक लोग इतने प्रभावित होते थे कि हाथ जोड़कर भगवान् से प्रार्थना करते थे कि- " हे निर्ग्रन्थ ! प्रवचन मुझे विशेष रुचिकर हुए हैं। आप के पास जिस तरह बहुत से राजा, महाराजा, सेठ, सेनापति, तालवर, कौटुम्बिक, माण्डलिक, सार्थवाह आदि प्रत्रज्या अंगीकार करते हैं, उसी तरह प्रत्रज्या ग्रहण करने में तो हम असमर्थ हैं; पर हम श्रावक के व्रत अंगीकार करना चाहते हैं । ३५० आनन्द आदि श्रावकोंने जो व्रत अंगीकार किये हैं और सातवें व्रत उपभोग परिभोग की जो मर्यादा की है उससे उस समय का सांस्कृतिक स्तर हमारे सामने प्रत्यक्ष हो जाता है । पांचवे व्रत में धन, धान्यादि की मर्यादा की जाती है । आनन्दने मर्यादा की थी कि मैं १२ करोड़ सोनैयां, गायों के चार गोकुल, पांच सौ हल और पांच सौ हलों से जोती जानेवाली भूमि, हजार गाड़े और चार बैड़ा जहाज के उपरान्त परिग्रह नहीं रखूंगा । इससे यह ज्ञात होता है कि उस समय के श्रावक पशुपालन के साथ-साथ खेती भी करते थे । उनका व्यापार विदेशों से भी होता था । अर्थात् उस समय भी सामुद्रिक व्यापार होता था । आनन्द के चार जहाज चारों दिशाओं में घूमा करते थे । ५०० हल और उन से ती जानेवाली भूमि कितनी होगी ? कितना उनका भरापूरा जीवन था ! सातवें व्रत में उपभोग - परिभोग की मर्यादा की जाती है ? आनंद की उपभोगपरिभोग संबंधी मर्यादायें आज के दरिद्र और दुःखी जीवन के लिये स्वर्ग की सुख-स्मृति कराती हैं और सच कहा जाय तो आनंद की इन निम्न उल्लिखित मर्यादाओं में कुछ ही आज के बड़े २ महाराजा और सम्राटों के नित्य जीवन में मिलेंगी । उस समय की भारत की आशातीत वैभवस्थली पर आनंद का वैभव खण्ड मात्र था और ये मर्यादाऐं उस वैभव की रेखा मात्र थीं । आज के लिये ये केवल कल्पनाये हैं; परन्तु तत्कालीन महिम वैभव के लिये ये मर्यादायें थीं । आनंद श्रावक इस प्रकार मर्यादा की थीं : - ( १ ) उल्लणियाविहिः – स्नान करने के पश्चात् शरीर को पोंछने के लिए गमछा ( Towel ) आदि की मर्यादा करना । आनन्दने गन्धकाषायित ( गन्धप्रधान लाल वस्त्र ) का नियम किया था । ( २ ) दन्तवणविहिः - दांतुन का परिमाण करना । आनन्दने हरी मुलहटी का नियम किया था ।
SR No.012068
Book TitleRajendrasuri Smarak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYatindrasuri
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1957
Total Pages986
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
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