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________________ संस्कृति सांख्य और जैनधर्म । ३४३ में किसी वस्तु का परिणाम होता है। तो उसका यह अभिप्राय है कि चेतन के सान्निध्य के बिना उस वस्तु में परिणाम हो नहीं सकता । इसलिये अपनी सन्निधि के कारण वह चेतन उस परिणाम का साक्षी है । उसको सांख्य में अधिष्ठाता कहा जाता है और उस परिणाम का कर्ता भी; परन्तु परिणति क्रिया का वह आधार नहीं है । उस क्रिया का आधार वही अचेतन तत्त्व है जो परिणत हो रहा है । इस अर्थ को उदाहरण के द्वारा ऐसे समझना चाहिये-जब किसी इन्द्रिय का विषय के साथ सम्पर्क होता है, तब इन्द्रिय में विषय की छाया अथवा उसका प्रतिबिम्ब प्रतिफलित होता है और इन्द्रिय विषयाकार हो उठती है। यही इन्द्रिय का विषयाकार परिणाम है। इन्द्रिय के साथ अन्तःकरण-बुद्धि का साक्षात् सम्पर्क है । तब इन्द्रिय प्रणाली से अर्थात् इन्द्रिय मार्गद्वारा वह विषय बुद्धि तक पहुंचता है और बुद्धि का विषयाकार परिणाम हो जाता है । यह परिणाम की परम्परा यहां समाप्त हो जाती है । पर यह सब प्रक्रिया चेतन आत्मा की सन्निधि के विना संभव नहीं । इसलिये इस सब प्रक्रिया का कर्त्ता अथवा अधिष्ठाता चेतन आत्मा कहा जाता है । बुद्धि उस विषय को आत्मा में समर्पित कर अपना कार्य पूरा कर देती है। आत्मा उस विषय का अनुभव करता है, यही उसका कर्तृत्व अथवा भोक्तृत्व है। आत्मा जब उस विषय का अनुभव करता होता है, तब उसका विषयाकार परिणाम नहीं हो जाता। अचेतन बुद्धि तक ही परिणामपरम्परा पूरी हो जाती है। वस्तुतः वह भी अर्थ के प्रतिपादन करने का एक प्रकार मात्र है। अभिप्राय यह है कि चेतन का कर्तृत्व परिणाम पर आधारित नहीं है, परन्तु अचेतन में कर्तृत्व का कथन सर्वथा उसके परिणाम पर आधारित है । इस लिये सांख्य में जहां कहीं चेतन को अकर्ता कहा है, वह अचेतन के परिणाम अथवा उपादानरूप कर्तृत्व का ही निषेध है-चेतन के अधिष्ठातृरूप अथवा साक्षिरूप कर्तृत्व का नहीं । इस लिये सांख्य में आत्मा के साथ कहीं अकर्ता का प्रयोग होनेपर इस प्रान्ति में न पड़ना चाहिये कि आत्मा के अधिष्ठातृत्व का यह निषेध किया गया है । इसी प्रकार प्रकृति के साथ कर्ता पद का प्रयोग होने पर इस भ्रम में न पड़ना चाहिये कि प्रकृति में अधिष्ठातृत्व को अंगीकार कर लिया गया है। फलतः सांख्य के विचार से प्रकृति में उपादानमूलक कर्तृत्व है और चेतन आत्मा में अधिष्ठातृमूलक । लेखके कलेवर की वृद्धि के भय से यहां सांख्य के इस विषय के प्रमाणभूत उल्लेखों का संग्रह करने की उपेक्षा कर दी है। इस प्रकार चेतनस्वरूप आत्मा सांख्यदृष्टि में भी कर्ता और भोक्ता है । जैनधर्म के कतिपय आचारविचारों को सांख्य के सन्तुलन पर हमने यहां परीक्षण किया है । विषय अधिक लम्बा है-इस समय इतना ही।
SR No.012068
Book TitleRajendrasuri Smarak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYatindrasuri
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1957
Total Pages986
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
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