SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 425
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ફર श्रीमद् विजयराजेन्द्रसूरि-स्मारक-ग्रंथ दर्शन और पर विद्वानों म बहुत भ्रान्ति है । साधारण रूप में यह समझा जाता है कि सांख्य आत्मा को 'भोक्ता ' तो मानता है, पर ' कर्ता ' नहीं मानता। पर यह भी एक साधारण बात है कि आत्मा को भोक्ता मान कर उसे 'कर्ता' मानने से कैसे नकार किया जा सकता है । 'भोक्ता' में ही तो कर्ता अन्तर्निविष्ट है । भोग का 'कर्ता' ही भोक्ता है । तब भोक्ता मानकर कर्ता मानने से नकार कैसे ! वस्तुस्थिति यह है कि आत्मा के विषय में आये सांख्य के 'अकर्ता' पद को ठीक समझने का यत्न नहीं किया गया । साधारणतया किसी भी क्रिया के करने में स्वतन्त्र अर्थात् अन्यनिरपेक्ष होना कर्तृत्व कहा जाता है । पर सांख्य में जब हम इसका विचार करते हैं तो दो भावना सन्मुख आती हैं-एक अधिष्ठातृत्व की और दूसरी उपादान की अर्थात् सांख्य में अधिष्ठाता भी कर्ता है और उपादान भी । कारण यह है कि किसी भी अर्थ को अनेक प्रकार से प्रस्तुत किया जा सकता है । प्रकृति से जगत बनता है, मट्टी से घड़ा बनता है, सुवर्ण से कुण्डल बनता है । इन स्थलों में प्रकृति, मट्टी, सुवर्ण का स्पष्ट ही उपादान रूप में वर्णन किया गया है। इसी अर्थ को एक अन्य प्रकार से उपस्थित किया जा सकता है । प्रकृति जगत् बन जाती है, मट्टी घड़ा बन जाती है, सुवर्ण कुण्डल बन जाता है। यहां पर प्रकृति, मट्टी और सुवर्ण-जगत्, घड़ा और कुण्डल के उपादान ही हैं, पर जिस ढंग से वाक्य में उनका प्रयोग किया गया है, उससे उनकी स्थिति 'कर्ता' रूप में प्रकट होती है। प्रकृति, मृत् तथा सुवर्ण वाक्य में कर्ता होते हुए भी कार्यक्षेत्र में वे जगत् आदि के उपादान ही हैं। इसका परिणाम यह निकला कि सांख्य में जहां कहीं प्रकृति को 'का' बताया गया है वहां उसके कर्तृत्व का यही अभिप्राय है अर्थात् वह उपादान रूप अर्थ का प्रतिपादक है। इसी भाव को लेकर इस के विपरीत आत्मा को ' अकर्ता ' बताया गया है। क्योंकि आत्मा किसी कार्य का उपादान नहीं है। उपादान वही तत्त्व हो सकता है जो परिणामी है, आत्मा ऐसा नहीं है । फलतः जब उपादान के अर्थ में ' कर्तृ' पद का प्रयोग होता है, तब प्रकृति कर्ता और आत्मा अकर्ता कहे जाते हैं । इसी आधार पर सांख्यसप्तति की जयमंगला व्याख्या में पुरुष को अकर्ता बताते हुए लिखा है-'निर्गुणस्य पुरुषस्याप्रसवधर्मित्वादकर्तृत्वम् । गुणों से अतिरिक्त पुरुष अप्रसवधर्मी होने से 'अकर्ता' कहा जाता है । गुण प्रसवधर्मी हैं, इसलिये कर्ता हैं । यहां ' कर्तृ ' पद उपादान की भावना से परिणामी अर्थ को कहता है । वाचस्पतिमिश्रने भी १८ वीं आर्या के 'अकर्तृभावः ' पद की यही व्याख्या की है• अप्रसवधर्मित्वाचाकर्ता । ' परन्तु दूसरी ओर कर्तृत्व का प्रयोग अधिष्ठातृत्व की भावना को प्रकट करने के लिये भी किया जाता है। जब हम कहते हैं कि एक चेतन के सान्निध्य
SR No.012068
Book TitleRajendrasuri Smarak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYatindrasuri
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1957
Total Pages986
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy