SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 416
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ संस्कृति जैन धर्म में स्त्रियों को समान अधिकार | ३३३ रमणी होने पर गृहस्थ सन्तनी हो सकी और अपने पतिव्रत धर्म के साथ-साथ अपने धर्म में अटल निष्ठा रखने के कारण अपने उभय परिवार की कीर्ति और मर्यादा बढ़ाने में सफल हुई । कथा निम्न प्रकार है । चम्पानगर में निवास करनेवाले प्रतिष्ठित सेठ जिनदास की सुभद्रा नामक अनुपम सुन्दरी और जिनधर्मपरायणा पुत्री थी । वह गृहस्थ रूप से अपने पिता-माता के साथ रहते हुए नमस्कार मन्त्र स्मरणपूर्वक दोनों समय सुबह - साम सामायिक, प्रतिक्रमण करती थी और अर्हन्त भगवान् का सदा स्मरण किया करती थी । एक समय एक पथिक उसकी रूप - लावण्यशीलता और यौवन आदि समस्त गुणों पर मोहित हो गया और उसको प्राप्त करने के अभिप्राय से जैनधर्मावलम्बी नहीं होने पर भी प्रतिदिन यथाकाल सामायिक, प्रतिक्रमण आदि गुरुवन्दना तक की समस्त क्रियाएं करने लगा । इस आडम्बरपूर्ण आचरण से जिनदास उसकी ओर आकृष्ट हो गया । पुराना नियम था कि जो वर १ कुल, २ धन, ३ वय, ४ विद्या, ५ धर्म, ६ शील और ७ सुन्दरता इन सात गुणों से युक्त हो उसे पिता समस्त गुणों से युक्त रूप और लावण्य से भरपूर कन्या देवे। जिनदास उसके दिखाई धर्मात्मापन से आकृष्ट तो हो गए, किन्तु उन्हें नहीं मालूम हुआ कि छद्मवेशी नवयुवक बुद्धदास कपट कर रहा है और बौद्धमते का अनुयायी है । उसने उसे जैनधर्म का कट्टर अनुयायी समझकर भद्रा सुभद्रा को विवाहविधि से शीघ्र प्रदान करके विविध प्रकार के रत्न, सुवर्ण, हीरे आदि के आभूषण, दास, दासी, आसन, यान आदि तथा धर्मोपकरणों से शोभायमान करके कुल की रीति के अनुसार उसे सम्मान के साथ ससुराल भेज दी । वहां पर भी सुभद्राने सामायिक, प्रतिक्रमण नियमपूर्वक उभयकाल जारी रक्खा और साथ-साथ जीवरक्षा, अभयदान तथा सुपात्रदान करती रही । सुभद्रा की सास बुद्ध धर्म की कट्टर अनुयायी थी । उसने कहा, "बेटी ! अपने घर में बुद्धदेव की उपासना होती है। तुम भी उन्हीं की उपासना किया करो। " जब सासने इस प्रकार कहा तब उसे पति का सारा कपटपूर्ण रहस्य समझ में आ गया । उसने निश्चय किया कि दैवगति से अनहोनी भवितव्यता हो गयी तो भी अपना धर्म त्याग नहीं करना चाहिए | अतः वह अपने पति की सेवा में संलग्न रहकर पतिव्रत धर्मपालन करती हुई अपने धर्मकार्य पर अटल रही। चूंके वह सदाचारिणी और सुशीला थी; अपने कुल से विरुद्ध उसका आचरण देखकर सास यद्यपि सुभद्रा पर कुढ़ती थी तथापि वह विना किसी कारण कुछ कर नहीं सकती थी । १ कई ग्रन्थों में उसे शिवभक्त लिखा है ।
SR No.012068
Book TitleRajendrasuri Smarak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYatindrasuri
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1957
Total Pages986
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy