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________________ રર૭ संस्कृति जीवन और अहिंसा। में असावधानता का नाम प्रमत्तयोग है। प्राणों का वध प्राणवध कहलाता है। इन दोनों में प्रथम अंश कारण रूप से है जब कि दूसरा कार्यरूप से। आचार्यदेव का वचन यह है कि जिस हृदय में राग-द्वेष की धारा बह रही है, असावधानता का जहां सर्वतोमुखी प्रभाव है, प्रमाद जिसका नेतृत्व कर रहा है उस हृदय द्वारा यदि किसी जीवन का अपहरण हो रहा है, उसे दुःख या पीड़ा पहुंचाई जा रही है तो वहां हिंसा का जन्म होता है। हिंसा की डाकिनी वहां साकार रूप धारण कर लेती है। जिस प्राणवध में राग-द्वेष नहीं है, किसी प्रकार की अन्य कोई क्षुद्रभावना नहीं है तो वह प्राणवध प्राणों का नाशक होने पर भी हिंसा का रूप नहीं ले सकता है। __जीवन में अनेकों बार ऐसे अवसर आते हैं कि हम किसी को बचाने या उसको सुख-आराम पहुंचाने का प्रयत्न करते हैं, किन्तु परिणाम उल्टा होता है । बचाये जानेवाले को कष्ट होता है, वह कराह उठता है, कई बार उसके जीवन का अन्त भी हो जाता है। प्राणों के बचाने में पूर्णतया सचेत और सतर्क डाक्टर के हाथों से रोगियों के हो रहे प्राणनाश की बात यदा-तदा सुनने में आती रहती हैं, किन्तु ऐसी स्थिति में वह प्राणनाशक हिंसा का रूप नहीं ले सकता; क्योंकि वहां भावना रोगी की सुरक्षा की है-उसको बचाने की है-राग-द्वेष का वहां कोई चिन्ह भी नहीं है। अतः वहां हिंसा नहीं है। हिंसा वहीं होती है जहां राग-द्वेष का भाव होता है और राग-द्वेष की छाया तले जहां किसी के जीवन को लूटा जाता है। वस्तुतः मन, वाणी और शरीर से काम-क्रोध-मोह-लोभ आदि दूषित मनोवृत्तियों के साथ जब किसी प्राणी को शारीरिक या मानसिक किसी भी प्रकार की हानि या पीड़ा पहुंचाई जाती है तब उसे हिंसा कहा जाता है। गुरु द्वारा किया गया शिष्यताइन देखने में भले ही हिंसा प्रतीत हो, किन्तु वहां भावना की सात्विकता के कारण उसे हिंसा का रूप नहीं दिया जा सकता । इसके अतिरिक्त अहित एवं अनिष्ट की वृद्धि से किसी को पिलाया गया गोदुग्ध भी हिंसा का कारण बन जाता है। अतः हिंसा का मूल राग-द्वेषपूर्ण भावना है । जहां-जहां भी राग-द्वेष की भावना निवास करती है वहां-वहां पर ही हिंसा की उत्पत्ति होती चली जाती है। हिंसा का विलोम अहिंसा है। अनुकम्पा-दया-करुणा-सहानुभूति-समवेदना आदि अहिंसा के ही पर्यायवाची शब्द हैं। मन, वाणी और शरीर से किसी भी प्राणी को शारीरिक, वाचिक और मानसिक किसी भी प्रकार का कष्ट या क्लेश न पहुंचाने का नाम अहिंसा है। अहिंसा का आराधक अहिंसक होता है। अहिंसा का जीवन एक निराला जीवन होता है। उसका मानस सदा दयाके झूले पर झूलता रहता है । उसके यहां किसी का अनिष्ट नहीं होता।
SR No.012068
Book TitleRajendrasuri Smarak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYatindrasuri
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1957
Total Pages986
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
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