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________________ श्रीमद् विजयराजेन्द्रसूरि-स्मारक -ग्रंथ ( ३४ ) सिद्धावास - मोक्ष के अक्षय निवास को देनेवाली । (३५) अनाश्रव - कर्मबन्ध को रोकनेवाली । ( ३६ ) केवलीस्थान - अहिंसा केवली भगवान् का स्थान है अर्थात् केवली प्ररूपित धर्मं का मुख्य आधार अहिंसा ही है । इस लिए अहिंसा 'केवलीस्थान ' कहलाती है । ( ३७ ) शिव - शिव अर्थात् मोक्ष को देनेवाली । (३८) समिति - सम्यक् प्रवृत्ति करानेवाली । ( ३९ ) शील - चित्त की समाधि रूप । (४०) संयम - हिंसा से निवृत्त करानेवाली । ( ४१ ) शीलपरिघर - चारित्र का आश्रय । (४२) संवर - नवीन कर्मों के आगमन को रोकनेवाली । (४३) गुप्ति - मन, वचन, काया की अशुभ प्रवृत्ति को रोकनेवाली । ( ४४ ) व्यवसाय - विशिष्ट अध्यवसायरूप | (४५) उच्छ्रय-मन के भावों को उन्नत बनानेवाली । (४६) यज्ञ - भावपूजारूप 1 (४७) आयतन - गुणों का स्थान । (४८) यजना - अभयदान देनेवाली । अथवा यतना-प्राणियों को रक्षारूप । ३२४ दर्शन और (४९) अप्रमाद - प्रमाद का त्यागरूप । (५०) आश्वास - प्राणियों के लिए आश्वासरूप । (५१) विश्वास - प्राणियों के लिए विश्वासरूप । (५२) अभय - संसार के समस्त प्राणियों को अभयदान देनेवाली । (५३) अमाघात - अमारि ) - किसी भी प्राणी को न मारने का उद्घोष करनेवाली । ( ५४ ) चोक्षा - पवित्र । ( ५५ ) पवित्र - पाप मल को धो कर पवित्र करनेवाली । (५६) शुचि - भावशुचिरूप होने से अहिंसा 'शुचि' कही जाती है। जैसा कि कहा हैसत्यं शौचं तपः शौच, शौचमिन्द्रियनिग्रहः । सर्वभूतदया शौंचं, जलशौचं च पश्चमम् ॥ - अर्थात् - सत्य, तप, इन्द्रियनिग्रह, सब प्राणियों की दया शुचि है और पांचवीं जलशुचि कही गई है । उपरोक्त चार भावशुचि हैं और जलशुचि द्रव्यशुचि है । (५७) पूया - ( पूता या पूजा ) पवित्र होने से 'पूता' और भाव से देवपूजारूप होने से अहिंसा 'पूजा' कही जाती है । 1 (५८) विमला - स्वच्छ-1 छ - निर्मल (५९) प्रभा - दीप्तिरूप । (६० ) निर्मलतरा - जीव को अति निर्मल बनानेवाली होने से अहिंसा 'निर्मलतरा ' कही जाती है।
SR No.012068
Book TitleRajendrasuri Smarak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYatindrasuri
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1957
Total Pages986
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
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