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संस्कृति
भारत की अहिंसा संस्कृति । देश की आत्मा को विजय न कर सके । बल्कि दासों और व्रात्यों की हत्या के कारण अथवा देवयज्ञों के लिए पशुहिंसा के कारण इन्द्र-उपासक आर्यजन सप्तसिन्धुदेश में घृणा की दृष्टि से देखे जाने लगे और यहां के मूलवासी नाग व दस्युलोग इनके विरोध में उठ खड़े हुए। इससे उनकी हिंसामयी याज्ञिक आधिदैविक संस्कृति को बहुत धक्का पहुंचा और वह प्रायः निस्तेज हो गई। क्योंकि यह विरोध उस समय तक शान्त न हुआ जब तक कि वैदिक ऋषियोंने अहिंसा धर्म को अपना कर अग्नि में जौ का होम करना, पर्व के दिनों में वृक्ष और वनस्पति की रक्षा करना, पत्नी के रजस्वला होने पर पूर्ण ब्रह्मचर्य का पालन करना और भारत की नदियों का संमान करना न सीख लिया । आर्यजन और आर्यावर्त__ इस प्रकार के आये दिन के नागों के आक्रमणों से परेशान होकर आर्यगण सप्तसिन्धु देश को छोड़कर जमनापार मध्यप्रदेश की ओर बढ़ चले जो आज उत्तरप्रदेश के नाम से प्रसिद्ध है। चूंकि पीछे से यह देश ही आर्यजन की स्थायी वसति बन कर रह गया; इसलिये भारत का मध्यमभाग आर्यावर्त के नाम से प्रसिद्ध हुआ। इस देश में यद्यपि आर्यगण को रहने का स्थान तो स्थायी मिल गया; परन्तु यहां उन्हें भारत की अहिंसामयी संस्कृति से प्रभावित होकर धर्म व आहार-व्यवहार के लिये होनेवाली अपनी हिंसात्मक प्रवृत्तियों का सदा के लिये त्याग करना पड़ा। ४. राजा वसु और पर्वत की कथा
इस सम्बन्ध में पाञ्चाल देश के राजा वसु, नारद और पर्वत की पौराणिक कथा जो मत्स्यपुराणं व महाभारत में दी हुई है विशेष विचारणीय है। इस कथा में बतलाया गया है कि त्रेतायुग के आरम्भ में विश्वभुक् इन्द्रने यज्ञ आरम्भ किया। बहुत से महर्षि उसमें आये । उस यज्ञ में पशुवध होते देखकर ऋषिने घोर विरोध किया। ऋषिने कहा-' नायं धर्मो. ह्यधर्मोऽयं न हिंसा धर्म उच्यते ' । अर्थात् यह धर्म नहीं है, यह तो अधर्म है। हिंसा कभी धर्म नहीं हो सकता। यज्ञ बीजों से करना चाहिये । स्वयं मनुने पूर्वकाल में यज्ञ सम्बन्धी ऐसा ही विधान बतलाया है। परन्तु इन्द्र न माना। इस पर इन्द्र और ऋषि के बीच यज्ञविधि को लेकर विवाद खड़ा हो गया कि यज्ञ जंगम प्राणियों के साथ करना उचित है या अन्न और वनस्पति के साथ । इस विवाद का निपटारा करने के लिये इन्द्र और ऋषि आकाशचारी चेदिनरेश वसु के पास पहुंचे। वसुने विना सोचे कह दिया कि यज्ञ जंगम
१. मत्स्यपुराग-मन्वन्तरानुकल्प, देवर्षिसंवादनामक अध्याय १४३ । २. महाभारत अश्वमेध पर्व अध्याय ९१ ।