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________________ संस्कृति भारत की अहिंसा संस्कृति । में मिला सके । इस लिये जैसा कि अथर्ववेद के समय आर्यजन के बसे रहने के बाद भी इन देशों के को माननेवाले बने रहे । को अलग और महान् बनाये के आधार पर चार भागों में विभक्त करने पर मजबूर किया । ३०९. पृथिवीसूक्त से जाहिर हैं, इतने लम्बे लोग अन्य भाषाओं और अन्य धर्मों इतना ही नहीं, बल्कि यहां की साधारण जनता से अपने रखने की भावनाने इन्हें यहां के मानवसमाज को वर्णव्यवस्था इस कल्पनाने धीरे २ घर करते हुए ब्राह्मणों को इस समाजरूपी विराट् पुरुष का मुख, राजकर्मचारियों को इसके बाहू, सर्वसाधारण मध्यमवर्ग के लोगों को इसका पेट और श्रमजीवी चूड लोगों को इस के पैर बना दिया । इनकी इस भावना का आलोक ऋग्वेद १०. ९० के पुरुषसूक्त से साफ मिलता है । इस भावना के कारण यद्यपि ये अपनी वर्णशुद्धि और अपनी याज्ञिक संस्कृति को बहुत कुछ सुरक्षित रख सके, परन्तु इस भावना से यहां के लोगों में जो पृथक्करण और दासत्व की लहर पैदा हुई वह आर्यजन और देश के . लिये आगे चल कर बहुत ही हानिकारक सिद्ध हुई । पाणि और इन्द्र का आख्यान - पणिपद (पानीपत), शुनीपद (सोनीपत) के नागजन - इस युग में सप्तसिंधु के आर्यजन सभी ओर से विजातीय और विधर्मी लोगों से घिरे हुए थे । उत्तर में भूत, पिशाच, यक्ष, गन्धर्व लोगों से, पूर्व में व्रात्य लोगों से, दक्षिण में राक्षस लोगों से और स्वयं सप्तसिन्धुदेश में पणि, शुनी आदि नाग लोगों की विभिन्न जातियों से । चूंकि ये सभी लोग प्रायः श्रमण संस्कृति के अनुयायी थे, त्यागी, तपस्वी, ज्ञानी साधुसन्तों के उपासक थे, अहिंसा धर्म को माननेवाले थे इस लिये ये सदा आर्यगण के माननीय देवताओं और उनके हिंसामय याज्ञिक अनुष्ठानों का विरोध करते थे और उनके पशुओं को विद्वेषवश बधबन्धन से छुड़ाने लिए छीन कर व चुराकर ले जाया करते थे । इस सम्बन्ध में कुरुक्षेत्र की तात्कालीन स्थिति जानने के लिए पणि और इन्द्र का प्रसिद्ध आख्यान जो ऋ. १०. १०८ में दिया हुआ है, विशेष अध्ययन करने योग्य है । यह आख्यान सप्तसिन्धुदेश के तत्कालीन विजातीय सांस्कृतिक संघर्ष को जानने के लिये इतना ही जरूरी है जितना कि दक्षिणापथ के विन्ध्यगिरिदेश में विद्याधर राक्षसों द्वारा याज्ञिकी पशुहिंसा के विरुद्ध किये गये संघर्ष का पता लगाने के लिए रामायण की कथा का जानना जरूरी है। ऋग्वेद के उपर्युक्त १०. १०८ के आख्यान में बतलाया गया है कि पणि लोगोंने इन्द्र के पुरोहित बृहस्पति की १. जनं बिभ्रती बहुधा विवाचसं नानाधर्माणम्। अथर्व १२, १. ४५ २. ब्राह्मणोऽस्य मुखमासीद् बाहू राजन्यः कृतः । अरू तदस्य पद्वैश्चः पद्भ्यां शूद्रो अजायत । ऋ. १०, ९०
SR No.012068
Book TitleRajendrasuri Smarak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYatindrasuri
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1957
Total Pages986
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
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