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________________ ३०६ श्रीमद् विजयराजेन्द्रसूरि-स्मारक-ग्रंथ दर्शन और हो ! दक्षने कहा-महर्षे ! जटाजूटधारी शुलपाणि ११ रुद्र इस लोक में हैं; परन्तु उन में महादेव कौन हैं ! यह मुझे मालूम नहीं है। दधीचिने कहा-तुम सबने षड्यन्त्र कर के महादेव को निमन्त्रण नहीं दिया है, किंतु मेरी समझ में महादेव के समान दूसरा श्रेष्ठ देवता और नहीं है; इस लिये निःसन्देह तुम्हारा यज्ञ नष्ट होगा। इस पर दक्षने कहा कि-यज्ञों द्वारा पवित्र किया हुआ यह हवि रखा हुआ है । मैं इस यज्ञभाग से विष्णु को सन्तुष्ट करूंगा। यह बात पार्वती के मन को न भाई । तब महादेवने कहा-सुन्दरि ! मैं सब यज्ञों का ईश हूं। ध्यानहीन दुर्जन मुझे नहीं जानते। तब महादेवने अपने मुख से वीरभद्र नामक भयंकर पुरुष उत्पन्न किया जिसने भद्रकाली और भूतगण के साथ मिल कर दक्ष के यज्ञ का विध्वंस कर दिया। जब प्रजापति दक्षने वीरभद्र से पूछा-भगवन् ! आप कौन हैं ! वीरभद्रने उत्तर दियाब्रह्मन् ! न तो मैं रुद्र हूं और न देवी पार्वती । मैं वीरभद्र हूं और यह स्त्री भद्रकाली है । रुद्रकी आज्ञा से यज्ञ का नाश करने के लिए हम आये हैं। तुम उन्हीं उमापति महादेव की शरण में जाओ। यह सुनकर दक्ष महादेव को प्रणाम कर उनकी स्तुति करने लगा। यही कथा कुछ भिन्न ढंग से गोपथब्राह्मण उत्तरकाण्ड १.२ में वर्णित है । जिस का भावार्थ निम्न प्रकार है प्रजापतिने रुद्र को यज्ञ से भागरहित कर दिया । उसने (रुद्रने ) सोचा कि मेरा यह संकल्प और समृद्धि प्रजापति के लिये है जिसने मुझे यज्ञ से बाहर निकाला। तब उसने यज्ञ को पकड़ कर छेद कर दिया और छिदे हुए को काट डाला । वह प्राशिन्न (खाने योग्य अन्न ) बन गया । उस प्राशिन्न को देखने और खाने से भग सविता आदि के अङ्ग आदि टूट पड़े। यही कथा कूर्म पुराण पूर्वभाग अध्याय १५.८ में तथा स्कन्दपुराण माहेश्वरखण्ड केदारखण्ड अध्याय २ से ५ तक इस प्रकार दी गई है-जब यक्षद्वारा गंगाद्वार में संपादन किया हुआ हिंसात्मक अश्वमेध यज्ञ भगवान् शंकर के अनुचर वीरभद्र द्वारा विध्वस्त कर दिया गया और दक्ष व देवताओं को मार दिया गया तब भगवान् शंकर ब्रह्मा द्वारा स्तुति की जाने पर स्वयं हरिद्वार आये । वहां उन्होंने दक्ष को पुनरुज्जीवित किया और दक्ष द्वारा स्तुति की जाने पर उसे यह उपदेश दिया-हे सुरश्रेष्ठ ! चार प्रकार के पुण्यात्मा जन सदा मेरा भजन करते हैंआर्त, जिज्ञासु, अर्थार्थी और ज्ञानी । इन सब में ज्ञानी ही श्रेष्ठ है । इस लिए समस्त ज्ञानी पुरुष मुझे विशेष प्रिय हैं । जो ज्ञान के विना ही मुझे पाने का यत्न करते हैं वे अज्ञानी हैं। तुम केवल यज्ञादि कर्मद्वारा संसारसागर के पार जाना चाहते हो; परन्तु कर्म में आसक हुए
SR No.012068
Book TitleRajendrasuri Smarak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYatindrasuri
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1957
Total Pages986
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
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