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________________ ___ श्रीमद् विजयराजेन्द्रसूरि-स्मारक ग्रंथ दर्शन और अन्य योनियों की कथा को छोड़ो। जिस शरीर में आप हो उसे अपना मानते हो। क्या यह अतथ्य नहीं जो उसे अपना मानते हो ! और इसके उत्पन्न होने में जो कारण हों उन्हें माता-पिता मानते हो और जिनका माता-पिता के साथ सम्बन्ध है उन्हें दादा-दादी, नाना-नानी, चाचा-चाची, मामा-माई, मौसी-मौसिया आदि नाना प्राणियों के साथ बन्धुता का व्ययहार करते हो। यह सब तो निज के ही हैं । किन्तु जिनसे कोई संबंध नहीं, केवल एक ग्रामवासी हैं, उनके साथ भी आत्मीय पितामातादि तुल्य व्यवहार होता है । इतना परिग्रह संसार में होजाता है कि उसे लिखने में पूरा समय चाहिये। ___ अब विशेष वात विचारने की यह है कि जब शरीर को निज मान लिया, तब जिनके द्वारा शरीर का पोषण होता है उनसे राग सुतरां हो जाता है और जो पतिकूल हुये उनसे द्वेष होना स्वाभाविक है। इस प्रकार राग के कारण उनके जो पोषक हैं उनमें राग और जो घातक हैं उनसे द्वेष हो जाता है। इस प्रकार की पद्धति द्वेष में जान लेना चाहिये । इस प्रकार यह राग-द्वेष की परंपरा ही अनन्त यातनाओं की जननी है। इन सर्व उपद्रवों का मूल कारण मिथ्यात्व है ( इति मिथ्यात्व परिग्रह ) । इसके सद्भाव में ही हमारे क्रोध, मान, माया, लोभ की उत्पत्ति होती है । क्रोध की उत्पत्ति का मूल हेतु शरीर में ममताभाव है। हम शरीर को निज मानते हैं। किसीने हमारे प्रतिकूल कार्य किया, हमारी उसमें अनिष्ट बुद्धि हो जाती है। जिसमें अनिष्ट बुद्धि हुई उसको दूर करने की हम चेष्टा करते हैं । वहां पर मनमें यह विचार होता है कि कब इस अनिष्ट से पिण्ड छूटे, यह आपत्ति कहां से आगयी। सानन्द से जीवनयात्रा हो रही थी। इस दुष्टने आकर विघ्न कर दिया । कब इसका विध्वंस हो! इत्यादि । यदि हमारा वश होता तो इस को क्या ! इसके बन्धुवर्ग को भी यमलोक में पहुंचा देते; परन्तु क्या करें, इतनी शक्ति नहीं । इत्यादि नाना प्रकार के विकल्पजालों से मन चिन्तना करता रहता है। वचन के द्वारा नाना असभ्य वचनों का प्रयोग करता है । रे दुष्ट ! हमारे सामने से हट जा, शमें नहीं आती, हमारे निर्विघ्न विषयानन्द में तूने भोजन में मक्खी का काम किया। अरे ! कोई है नहीं । इस दुष्ट को आंख के सामने से हटा दे। । ऐसे दुष्टों के द्वारा ही तो जगत की सुख-सामग्री हरण की जाती है ।' __ काया के द्वारा लाठी आदि का भी प्रयोग करने में नहीं चूकता। यदि शत्रु बलवान दुवा तो वैचेन और काय के व्यापार से वञ्चित रहता है। केवल मन ही मन दुःखी रहता है।
SR No.012068
Book TitleRajendrasuri Smarak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYatindrasuri
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1957
Total Pages986
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
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