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________________ जैनधर्म का कर्मवाद पं. चैनसुखदास " न्यायतीर्थ " जैन संस्कृत कालेज, जयपुर वाद का अर्थ सिद्धान्त है । जो वाद कर्मों की उत्पत्ति, स्थिति और उनकी रस देने आदि विविध विशेषताओं का वैज्ञानिक विवेचन करता है-वह कर्मवाद है । जैनशास्त्रों में कर्मवाद का बड़ा गहन विवेचन है। कर्मों के सर्वांगीण विवेचन से जैनशास्त्रों का एक बहुत बड़ा भाग सम्बद्ध है। कर्मस्कन्ध-परमाणुसमूह होने पर भी हमें दिखता नहीं। आत्मा, परलोक, मुक्ति आदि अन्य दार्शनिक तत्वों की तरह वह भी अत्यन्त परोक्ष है। उसकी कोई भी विशेषता इन्द्रियगोचर नहीं है । कर्मों का अस्तित्व प्रधानतया आप्तप्रणीत आगम के द्वारा ही प्रतिपादित किया जाता है । जैसे आत्मा आदि पदार्थों का अस्तित्व सिद्ध करने के लिए आगम के अतिरिक्त अनुमान का भी सहारा लिया जाता है, वैसे कर्मों की सिद्धि में अनुमान का आश्रय भी लिया गया है। __ जैनों के कर्मवाद को समझने के लिए सचमुच तीक्ष्णबुद्धि और अध्यवसाय की जरूरत है । जैन ग्रन्थकारोंने इसे समझाने के लिए स्थान-स्थान पर गणित का उपयोग किया है। अवश्य ही यह गणित लौकिक गणित से बहुत कुछ भिन्न है। जहां लौकिक गणित की समाप्ति होती है, वहां इस अलौकिक गणित का प्रारंभ होता है । कर्मों का ऐसा सर्वांगीण वर्णन शायद संसार के किसी वाङ्मय में मिले । जैनशास्त्रों को ठीक समझने के लिए कर्मवाद को समझना अनिवार्य है। कर्मों के अस्तित्व में तर्क संसार का प्रत्येक प्राणी परतन्त्र है। यह पौद्गलिक ( भौतिक ) शरीर ही उसकी परतन्त्रता का द्योतक है। बहुत से अभाव और अभियोगों का वह प्रतिक्षण शिकार बना रहता है । वह अपने आपको सदा पराधीन अनुभव करता है । इस पराधीनता का कारण जनशास्त्रों के अनुसार कर्म है । जगत में अनेक प्रकार की विषमताएं हैं। आर्थिक और सामाजिक विषमताओं के अतिरिक्त, जो प्राकृतिक विषमताएं हैं उनका कारण मनुष्यकृत नहीं हो सकता। जब सब में एक सा आत्मा है, तब मनुष्य, पशु, पक्षी, कीट और वृक्ष-लताओं आदि के विभिन्न शरीरों और उनके सुख, दुःख आदि का कारण क्या है ! कारण के
SR No.012068
Book TitleRajendrasuri Smarak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYatindrasuri
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1957
Total Pages986
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
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