________________
२२८
श्रीमद् विजयराजेन्द्ररि-स्मारक-ग्रंथ दर्शन और __अतिचार रहित चारित्र का पालन करना यह भिक्षु जीवन का लक्ष्य है । यह उत्सर्ग मार्ग है । परन्तु देश, काल और परिस्थितिवश यदि अतिचार का सेवन भी करना पड़े तो वह अपवाद मार्ग है। यह भी धर्म है, अधर्म नहीं। यह भी मोक्ष का कारण है, अकारण नहीं । उत्सर्ग के समान अपवाद मार्ग भी मोक्ष में हेतु है ।
इस संबंध में व्यवहार भाष्य में कहा गया है कि " अतिचार का सेवन दो तरह से होता है-दर्प से और कल्प से।"
देश, काल और परिस्थितिवश कारण को लेकर अतिचार का सेवन किया जाता है । वही अपवाद रूप धर्म है। और वह अपवाद मार्ग पतन का कारण नहीं, बल्कि कर्म क्षय का ही कारण है। इस कथन का उल्लेख व्यवहार भाष्य में स्पष्ट रूप में आया है । वहाँ कहा गया है कि " जो कारणविशेष में अतिचार का सेवन करता है वह अपवाद मार्ग पर चलनेवाला है । वह आराधक ही है, विराधक नहीं।
_ विधिवाद और निषेधवाद के मध्य में होकर प्रवाहित होनेवाली जीवन सरिता अपने संलक्ष्य पर अवश्य पहुँचती है । उत्सर्ग और अपवाद के मध्य में होकर चलनेवाला साधक अपनी साधना में अवश्य ही सफल होता है। दोनों आगम विहित मार्ग है । यह साधक पर निर्भर है कि किस स्थिति में उत्सर्ग पर चलता है और किस दशा में अपवाद पर चलता है। शास्त्र का काम तो इतना ही है कि दिशा दर्शन कर दे । चलनेवाला तो आखिर साधक ही है।
१ या कारणमन्तरेण प्रति सेवना क्रियते, सा दर्पिका, या पुनः कारणे सा कल्पिका।
व्य. भा. उद्देश १, गा. ३८, टीका. २ अन्ना वि तु पडिसेवा, सा उन कम्मोदएण जा जयतो।
सा कम्मक्खयकरणी, दप्पा जय कम्मजगणी उ ॥४२॥
या कारणे यतमानस्य यतनया प्रवर्तमानस्य प्रतिसेवना, सा कर्मक्षयफरणी। सूत्रोक्तानीत्या कारणे यतमया यतमानस्य ततस्तत्राज्ञाराधनात् ।
व्य. भा. उद्देश १,