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संस्कृति उत्सर्ग और अपवाद ।
२२३ शिष्य प्रश्न करता है-" भंते ! उत्सर्ग अधिक है या कि अपवाद अधिक है।" शिष्य के प्रस्तुत प्रश्न का बृहत्कल्पभाष्य में यह समाधान किया है:
__ "वत्स ! उत्सर्ग और अपवादों की संख्या में मेद नहीं है। जितने उत्सर्ग होते हैं, उसके उतने ही अपवाद भी होते हैं और जितने अपवाद होते हैं, उसके उतने ही उत्सर्ग भी होते हैं।"
इससे सिद्ध होता है कि साधना के उत्सर्ग और अपवाद अपरिहार्य अंग हैं।
शिष्य प्रश्न करता है-" भंते ! उत्सर्ग और अपवाद इन दोनों में कौन बलवान है और कौन दुर्बल !" इसका समाधान भी बृहत्करभाष्य में दिया गया है:
"वत्स ! उत्सर्ग अपने स्थान पर श्रेयान् और बलवान है । अपवाद अपने स्थान पर श्रेयान् एवं बलवान् है। उत्सर्ग के स्थान पर अपवाद दुर्बल है और अपवाद के स्थान पर उत्सर्ग दुर्बल है।"
शिष्य जिज्ञासा प्रस्तुत करता है-" भंते ! उत्सर्ग और अपवाद में साधक के लिये स्वस्थान कौनसा है !" और परस्थान कौनसा है ! इस जिज्ञासा का सुन्दर समाधान बृहत्कल्प. भाष्य में इस प्रकार दिया गया है :
"वत्स! जो साधक स्वस्थ और समर्थ है उसके लिये उत्सर्ग स्वस्थान है और अपवाद परस्थान है। किन्तु जो अस्वस्थ एवं असमर्थ है उसके लिये अपवाद स्वस्थान है और उत्सर्ग परस्थान है।"
देश, काल और परिस्थितिवशात् उत्सर्ग और अपवाद स्वस्थान और परस्थान होते रहते हैं। इससे सिद्ध होता है कि साधक के जीवन में उत्सर्ग और अपवाद दोनों का समान भाव से परिस्थितिवश ग्रहण किया जाना चाहिये ।
___जैन धर्म की साधना न अति परिणामवाद को लेकर चलती है-न अपरिणामवाद को लेकर । वह तो परिणामवाद को लेकर ही चलती है। जो साधक परिणामी है वही उत्सर्ग और अपवाद के मार्ग को भली भाँति समझ सकता है। अति परिणामी और अपरिणामी
-बृहत्कल्पभाष्य, पीठिका
१ जावइया उस्सग्गा, तावइया चेव हुँति अववाया ।
जावइया अववाया, उस्सग्गा तेत्तिमा चेव ॥ ३२२॥ २ सट्ठाणे सहाणे, सेया बलिणो य हंति खलु एए ।
सट्ठाण-परट्ठाणा, ए हुँति वत्थू तो निप्फन्ना ॥३२३ ॥ ३ संथरओ सट्ठाणं, उस्सग्गो असहुणो परट्ठाणं ।
इय सहाण परं वा, न होइ वत्थू विणा किंचि ॥ ३२४ ॥
-बृहत्कल्पभाष्य, पीठिका
-बृहत्कल्पभाष्य, पीठिका