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________________ २२२ श्रीमद् विजयराजेन्द्रसूरि-स्मारक-ग्रंथ दर्शन और ही कर सकता है, दूसरा नहीं । शास्त्र, टीका, भाष्य और नियुक्ति काफी लम्बी दूर तक साधक का हाथ पकड़ कर चलाने का प्रयत्न करते हैं । जैसे शिशु को उसका पिता उसका हाथ पकड़ कर चलाना सिखाता है; परन्तु कुछ दिनों बाद वह शिशु को उसकी शक्ति पर ही छोड़ कर अलग हो जाता है । अन्त में साधक पर ही सब कुछ छोड़ दिया जाता है । शिष्य जिज्ञासा करता है- 'भंते ! यह उत्सर्ग क्या है ! और यह अपवाद क्या है !" आचार्य समाधान देता है, " जीवन जीने की जो सामान्य विधि है वह उत्सर्ग है और जो विशेष विधि है वह अपवाद है ।" भोजन करना यह जीवन की सामान्य विधि है, क्यों कि बिना भोजन के जीवन टिक नहीं सकता; परन्तु अजीर्ण हो जाने पर भोजन का त्याग करना ही श्रेयस्कर है । भोजन का त्याग ही जीवन हो जाता है-यह विशेष विधि है। यह बात भूलना नहीं चाहिये कि विशेष विधि सामान्य विधि की रक्षा के लिये ही होती है । अपवाद भी उत्सर्ग मार्ग की रक्षा के लिये ही अंगीकार किया जाता है । शिष्य फिर प्रश्न उपस्थित करता है-" भंते ! उत्सर्ग को छोड़ कर अपवाद मार्ग में जाने वाले साधक के क्या स्वीकृत व्रत भंग नहीं हो जाते ! " आचार्य एक रूपक के द्वारा इसका सुंदर समाधान करते हैं: एक यात्री त्वरित गति से पाटलीपुत्र नगर की ओर चला । वह यथाशक्ति चलता रहा, क्यों कि शीघ्र पहुँचना उसे अभीष्ट था; परन्तु थकान होने पर वह विश्राम करने लग जाता है जिससे विलम्ब हो गया । वह यात्री मार्ग में यदि विश्राम न करे तो स्वस्थ नहीं रह सकता । फिर अपने लक्ष्य पर कैसे पहुँचेगा ! बृहत्करपभाष्य का यह रूपक साधक जीवन पर कितना सुन्दर घटित होता है। साधक अपने उत्सर्ग मार्ग पर चलता है और उसे यथाशक्ति उत्सर्ग मार्ग पर चलना ही चाहिये; परन्तु उसे कारणवशात् अपवाद मार्ग पर आना पड़े तो यह उसका विश्राम होगा । यह इस लिये किया जाता है कि फिर वह अपने स्वीकृत पथ पर द्विगुणित वेग के साथ आगे बढ़ सकता है, अपने ठीक लक्ष्य पर जा पहुँच सकता है । उसका विश्राम करना, बैठना भी चलने के लिये होता है। उसका अपवाद भी उसके उत्सर्ग की रक्षा के लिये ही होता है। १ “ सामान्योक्तो विधिरुत्सर्गः, विशेषोक्तो विधिरपवादः।" -दर्शनशुद्धि २"धावतो उव्वाओ, मग्गन्नू किं न गच्छइ कमेणं । - किं वा मउई किरिया, न कीरए असहुमो तिक्ख ॥ ३२० ॥ -बृहत्कल्पभाष्य, पीठिका
SR No.012068
Book TitleRajendrasuri Smarak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYatindrasuri
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1957
Total Pages986
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
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