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________________ संस्कृि आचार्य मलवादी का नयचक लोति पचति ! गोयमा ! जीवा चेव अजीवा चेव " ( स्थानांग ) इत्यादि आग्रम वाक्यों से संबंध जोड़ा गया है । (४) सर्व प्रकार के कार्यों में समर्थ ईश्वर की आवश्यकता जब स्थापित हुई तब आक्षेप यह हुआ की ईश्वर की आवश्यकता मान्य है । किन्तु समग्र संसार के प्राणिओं का ईश्वर अन्य कोई पृथगात्मा नहीं, किन्तु उन प्राणिओं के कर्म ही ईश्वर हैं । कर्म के कास्पा ही जीव प्रवृत्ति करता है और तदनुरूप फल भोगता है। कर्म ईश्वर के अधीन नहीं । ईश्वरु कर्म के अधीन है । अतएव सामर्थ्य कर्म का ही मानना चाहिए, ईश्वर का नहीं। इस प्रकार कर्मवाद के द्वारा ईश्वरवाद का निराकरण करके कर्मका प्राधान्य चौथे अर में स्थापित कियागया । यह विधिनियम का प्रथम विकल्प है । نامه दार्शनिकों में नैयायिक - वैशेषिकों का ईश्वर कारणवाद है। उसका निरास अन्य सभी कर्मवादी दर्शन करते हैं । अत एव यहां ईश्वरवाद के विरुद्ध कर्मवाद का उत्थान आचार्यने स्थापित किया है । यह कर्म भी पुरुष - कर्म समझना चाहिए। यह स्पष्टीकरण किया है कि पुरुष के लिए कर्म आदिकर है अर्थात् कर्म से पुरुष की नाना अवस्था होती हैं और कर्म के लिए पुरुष आदिकर है । जो आदिकर है वही कर्ता है। यहां कर्म और आत्मा का भेद नहीं समझना चाहिए। आत्मा ही कर्म है और कर्म ही आत्मा है । इस दृष्टि से कर्म - कारणता का. एकान्त और पुरुष या पुरुषकार का एकान्त ये दोनों ठीक नहीं- आचार्य ने यह स्पष्ट कर दिया है । क्यों कि पुरुष नहीं तो कर्मप्रवृत्ति नहीं, और कर्म नहीं तो- पुरुषप्रवृत्ति नहीं । अतः एव इन दोनों का कर्तृत्व परस्पर सापेक्ष है । एक परिणामक है तो दूसरा परिणामी है, अतः एव दोनों में ऐक्य है । इसी दलील से आचार्य ने सर्वेक्य सिद्ध किया है। आत्मा, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश आदि सभी द्रव्यों का ऐक्य भावरूप से सिद्ध किया है और अन्त में युक्तिबल से सर्वसर्वात्मकता का प्रतिपादन किया है और उसके समर्थन में - ' जे एकणामे से बहुनामे' ( आचारांग १. ३. ४ ) इस आगमवाक्य को उद्धृत किया है । इस अरके प्रारंभ में ईश्वर का निरास किया गया और कर्म की स्थापना की गई । यह कर्मः ही भाव है, अन्य कुछ नहीं - यह अंतिम निष्कर्ष है । ( ५ ) चौथे अर में विधिनियमभंग में कर्म अर्थात् भाव अर्थात् क्रिया को जब स्थापित किया तब प्रश्न होना स्वाभाविक है कि भवन या भाव किसका ? द्रव्यशून्य केवल भवन हो नहीं सकता । किसी द्रव्य का भवन या भाव होता है । अत एव द्रव्य और भाव इन दोनों को अर्थरूर स्वीकार करना आवश्यक है; अन्यथा 'द्रव्यं भवति' इस वाक्य में पुनरुक्ति दोष होगा । इस नय का तात्पर्य यह है कि द्रव्य, और क्रिया का तादात्म्य है ।
SR No.012068
Book TitleRajendrasuri Smarak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYatindrasuri
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1957
Total Pages986
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
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