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________________ 得 श्रीमद् विजयराजेन्द्रसूरि स्मारक -ग्रंथ परमार्थ में ही आत्मभोग देनेवाले हैं, वे उत्तम हैं। अपनी स्वार्थसाधना के साथ जो दूसरों के साधन में भी यथाशक्य सहयोग देते रहते हैं वे मध्यम है। जो केवल अपने स्वार्थ साधन में ही कटिबद्ध रहते हैं; परंतु दूसरों के तरफ लक्ष्य नहीं रखते, वे अधम हैं । और जो अपनी भी साधना नहीं करते और दूसरों को भी बरबाद करना जानते हैं वे अधमाधम है । इन चारों में से प्रथम के दो व्यक्ति सराहनीय और समादरणीय हैं । प्रत्येक प्राणी को प्रथम या दूसरे भेद का ही अनुसरण करना चहिये, तभी उसकी उन्नति हो सकेगी। ६१ भोगों के भोगने में व्याधियों के होने का, कुल या उसकी वृद्धि होने में नाश होने का, धनसंचय करने में राजा, चोर, अग्नि और सम्बंधियों का, मौन रहने में दीनता का, बल - पराक्रम मिलने में दुश्मनों का, सौंदर्य मिलने में वृद्धावस्था का, सद्गुणी बनने में इर्ष्यालुओं का और शरीर-संपत्ति मिलने में यमराज का; इस प्रकार प्रत्येक वस्तुओं में भय ही भय है । संसार में एक वैराग्य ही ऐसा है कि जिस में किसी का न भय है और न चिन्ता । अतः निर्भय वैराग्य मार्ग का आचरण करना ही सुखकारक है I ६२ जिस प्रकार वनाग्नि वृक्षों को, हाथी वनलताओं को, राहु चन्द्रमा की कला को, वायु सघन बादलों को और जल पिपासा को छिन्नभिन्न कर डालता है; ठीक उसी प्रकार असंयम भावना आत्मा के समुज्वल ज्ञानादि गुणों को नष्ट-भ्रष्ट कर डालता है । जो लोग अपनी असंयम भावना को निजात्मा से निकाल कर दूर कर देते हैं और फिर उनके फंदे में नहीं फँसते वे अपने संयमभाव में रहते हुए अपने ध्येय पर आरूढ होकर सदा के लिये अक्षय्य सुखविलासी बन जाते हैं। इतना ही नहीं उन के आलम्बन से दूसरे प्राणी भी अपना आत्मविकास करते रहते हैं । ६३ संयम को कल्पवृक्ष की उपमा है; क्योंकि तपस्या रूपी इसकी मजबूत जड़ है, संतोष रूपी इसका स्कंध है, इन्द्रियदमन रूपी इसकी शाखा प्रशाखाएँ हैं, अभयदान रूप इसके पत्र हैं, शील रूपी इस में पत्रोद्ग हैं और यह श्रद्धाजल से सींचा जाकर नवपल्लवित रहता है । ऐश्वर्य और स्वर्गसुख का मिलना इस के पुष्प हैं और मोक्षप्राप्ति इस का फल है । जो इस कल्पवृक्ष की सर्व तरह से रक्षा करता है उसके सदा के लिये भवभ्रमण के दुःखों का अन्त हो जाता है । ६४ पर - दोषानुप्रेक्षी होने की अपेक्षा स्वदोषानुप्रेक्षी होना विशेष अच्छा है। परसंपत्ति की ईर्ष्या करने की अपेक्षा अपने कर्मों की आलोचना करना विशेष लाभजनक है। दूसरों
SR No.012068
Book TitleRajendrasuri Smarak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYatindrasuri
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1957
Total Pages986
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
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