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________________ श्री राजेन्द्रसूरि-वचनामृत । ५६ व्यभिचार सेवन करना कभी सुखदायक नहीं । इससे परिणामतः अनेक व्याधि तथा दुःखों में घिरना पडता है । उक्ति भी है कि 'भोगे रोगमयं' विषय भोगों में रोग का भय है, जो वास्तविक कथन है । व्यक्तिमात्र को अपने जीवन की तंदुरस्ती के लिये परखी, कुलांगना, गोत्रजस्त्री, अंत्यजस्त्री, अवस्था में बड़ी स्त्री, मित्रस्त्री, राजराणी, वेश्या और शिक्षक की स्त्री; इन नौ प्रकार की स्त्रियों के साथ कमी भूल कर के भी व्यभिचार नहीं करना चाहिये। इनके साथ व्यभिचार करने से लोक में निन्दा और नीतिकारों की आज्ञा का भंग होता है, जो कभी हितकारक नहीं है । ५७ चोरी, स्त्रीप्रसंग और उपकरण-संग्रह ये तीनों बातें हिंसामूलक हैं और संयमसाधकों को इनका सर्वथा परित्याग कर देना ही लाभकारक है। अजैन शास्त्र कारों का भी मन्तव्य है कि जो संन्यासी चोरी, भोग वलाल और माया का संग्रह करता है वह कनिष्ठ योनियों में बहत कालपर्यत भ्रमण करता रहता है। इसी प्रकार १ गृहस्थ की आज्ञा के बिना उसके घर की कोई भी वस्तु वापरना, २-किती की बालक बालिका या स्त्री को फुसला कर भगा देना, ३ और जिनेश्वर निषेधित बातों का आचरण अथवा शास्त्रविरुद्ध प्ररूपणा करना और ४ गुरु या वडील की आज्ञा के बिना गोचरी लाना, खाना या कोई भी वस्तु किसीको देना- लेना ये चारों बातें चोरी में ही प्रविष्ट हैं । अतः संयमी साधुओं को इन बातों से भी सदा दूर रहना चाहिये, तभी उसका संयम सार्थक होगा। ५८ रात्रिभोजन के ये चार भांगे-१ दिन को बनाया, दिन में स्वाया, २ दिन को बनाया रात्रि में खाया, ३ रात्रि को बनाया दिन में खाया, ४ अंधेरे में बनाया अंधेरे में खाया । इन भागों में से पहला भांगा ही शुद्ध है । रात्रिभोजन के त्यागियों को इन मांगों में सावधानी रख कर और परिहरणीय मांगों को छोड़ कर अपना नियम पालन करना ही लाभदायक है। इसी प्रकार रसचलित रातवासी, अभक्ष्य और नशीली चीजें भी वापरना अच्छा नहीं है । इन वस्तुओं को वापरने से शरीर के स्वास्थ्य को हानि पहुँचती है। ५९ समय की गतिविधि और लोक-मानस की रुख को भलि भाँति समझ कर जो व्यक्ति अपना सव्यवहार चलाता है वह किसी तरह की परेशानी में नहीं उतरता । जो लोग हठाग्रह या अपनी अल्पमति के वश उक्त बात का अनादर करते हैं वे किसी भी जगह लोगों का प्रेम सम्पादन नहीं कर सकते और न अपने व्यवहार में लाभ पा सकते हैं । अतः प्रत्येक मानव को समय की कदर करना और लोकमानस को रुख को पहचान कर कार्यक्षेत्र में उतरना चाहिये । ६० संसारी मनुष्यों में जो अपनी सुखसुविधा की कुछ भी चिन्ता न कर केवळ
SR No.012068
Book TitleRajendrasuri Smarak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYatindrasuri
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1957
Total Pages986
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
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