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________________ संस्कृति आचार्य मल्लवादी का नयचक्र । गाना हो तब तक आप कैसा ही राग आलापें यह आपकी मरजी की बात है; किन्तु समूह में गाना हो तब सब के साथ सामंजस्य करना ही पड़ता है। अनेकान्तवाद विवाद करनेवाले नयों में या विभिन्न दर्शनों में इसी सामञ्जस्य को स्थापित करता है, अत एव सर्वनय का समूह हो कर भी जैनदर्शन अत्यन्त निरवद्य है, निर्दोष है'। सर्वदर्शन-संग्राहक जैनदर्शन यह बात हुई सामान्य सिद्धान्त के स्थापन की, किन्तु इस प्रकार सामान्य सिद्धान्त स्थिर करके भी अपने समय में प्रसिद्ध सभी नयवादों को-सभी दर्शनों को जैनों के द्वारा माने गए प्राचीन दो नयों में-द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक में घटाने का कार्य आवश्यक और अनिवार्य हो जाता है । आचार्य सिद्धसेनने प्रधान दर्शनों का समन्वय कर उस प्रक्रिया का प्रारंभ भी कर दिया है और कह दिया है कि सांख्यदर्शन द्रव्यार्थिक नय को प्रधान मान कर, सौगतदर्शन पर्यायार्थिक को प्रधान मान कर और वैशेषिक दर्शन उक्त दोनों नयों को विषयभेद से प्रधान मान कर प्रवृत्त हैं। किन्तु प्रधान-अप्रधान सभी वादों को नयवाद में यथास्थान बिठा कर सर्वदर्शनसमूहरूप अनेकान्तवाद है इसका प्रदर्शन बाकी ही था। इस कार्य को नयचक्र के द्वारा पूर्ण किया गया है। अत एव अनेकान्तवाद वस्तुतः सर्वदर्शनसंग्रहरूप है इस तथ्य को सिद्ध करने का श्रेय यदि किसी को है तो वह नयचक्र को ही है, अन्य को नहीं। मैंने अन्यत्र सिद्ध किया है कि भगवान् महावीरने अपने समय के दार्शनिक मन्तव्यों का सामञ्जस्य स्थापित करके अनेकान्तवाद की स्थापता की है। किन्तु भगवान् महावीर के बाद तो भारतीय दर्शन में तात्त्विक मन्तव्यों की बाढ़ सी आई है। सामान्यरूप से कह देना कि सभी नयों का-मन्तव्यों का-मतवादों का समूह अनेकान्तवाद है यह एक बात है और उन मन्तव्यों को विशेषरूप से विचारपूर्वक अनेकान्तवाद में यथास्थान स्थापित करना यह दूसरी बात है। प्रथम बात तो अनेक आचार्योंने कही है। किन्तु एक-एक मन्तव्य का विचार करके उसे नयान्तर्गत करने की व्यवस्था करना यह उतना सरल नहीं । नयचक्रकालीन भारतीय दार्शनिक मन्तव्यों की पृष्ठभूमिका विचार करना, समग्र तत्त्वज्ञान के विकास में उस उस मन्तव्य का उपयुक्त स्थान निश्चित करना, नये नये मन्तव्यों के १. “ एवं विवयन्ति नया मिच्छाभिनिवेसओ परोप्परओ। इयमिह सव्वनयमयं जिणमयमणवज्जमचन्तं ॥" विशेषावश्यकभाष्य गा. ७२. । २ सन्मति ३. ४८-४९ । ३ देखो न्यायावतार वार्तिकवृत्ति की प्रस्तावना ।
SR No.012068
Book TitleRajendrasuri Smarak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYatindrasuri
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1957
Total Pages986
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
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