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श्रीमद् विजयराजेन्द्ररि-स्मारक-ग्रंथ दर्शन और रोज पहले मुनिराज श्री पुण्यविजयजीने सूचना दी कि उपाध्याय यशोविजयजी के हस्ताक्षर की प्रति, जो कि उन्होंने दीमकों से खाई हुई नयचक्रटीका की प्रति के आधार पर लिखी थी, मिल गई है । आशा है मुनि श्री जम्बूविजयजी इस प्रति का पूरा उपयोग नयचक्रटीका के अमुद्रित अंश के लिए करेंगे ही एवं अपर मुद्रित अंश को भी उसके आधार पर ठीक करेंगे ही।
, मैंने प्रेमी अभिनन्दन ग्रन्थ (१९४६) में अपने लेख में नयचक्र का संक्षिप्त परिचय दिया ही है, किन्तु उस ग्रन्थ-रचना का वेलक्षण्य मेरे मन में तब से ही बसा हुआ है
और अवसर की प्रतीक्षा में रहा कि उसके विषय में विशेष परिचय लिखू। दरमियान मुनि श्री जन्बूविजयजीने श्री ' आत्मानंद प्रकाश ' में नय चक्र के विषय में गुजराती में कई लेख लिखे और एक विशेषांक भी नयचक्र के विषय में निकाला है। यह सब और मेरी अपनी नोंधों के आधार पर यहाँ नयचक्र के विषय में कुछ विस्तार से लिखना है। नयचक्र का महत्व
जैन साहित्य का प्रारंभ वस्तुतः कब से हुआ इसका सप्रमाण उत्तर देना कठिन है । फिर भी इतना तो अब निश्चयपूर्वक कहा जा सकता है कि भगवान महावीर को भी भगवान् पार्श्वनाथ के उपदेश की परंपस पास थी। स्वयं भगवान महावीर अपने उपदेश की तुलना भगवान् पार्श्वनाथ के उपदेश से करते हैं। इससे इतना तो स्पष्ट हो ही जाता है कि उनके समक्ष पार्श्वनाथपरंपरा का श्रुत किसी न किसी रूप में था। विद्वानों की कल्पना है कि दृष्टिवाद में जो पूर्वगत के नाम से उल्लिखित श्रुत है वही पार्श्वनाथपरंपरा का श्रुत होना चाहिए। पार्श्वनाथपरंपरा से प्राप्त श्रुत को भगवान् महावीरने विकसित किया वह आज जैनश्रुत या जैनागम के नाम से प्रसिद्ध है।
जिस प्रकार वैदिक परंपरा में वेद के आधार पर बाद में नाना दर्शनों के विकास होने पर सूत्रात्मक दार्शनिक साहित्य की सृष्टि हुई और बौद्ध परंपरा में अभिधर्म तथा महायान दर्शन का विकास होकर विविध दार्शनिक प्रकरण ग्रन्थों की रचना हुई, उसी प्रकार जैन साहित्य में भी दार्शनिक प्रकरण ग्रन्थों की सृष्टि हुई है।
वैदिक, बौद्ध और जैन इन तीनों परंपरा के साहित्य का विकास घात-प्रत्याघात और आदान-प्रदान के आधार पर हुआ है । उपनिषद् युग में भारतीय दार्शनिक चिन्तनपरंपरा का प्रस्फुटीकरण हुआ जान पड़ता है और उसके बाद तो दार्शनिक व्यवस्था का युग प्रारंभ हो जाता है। वैदिक परंपरा में परिणामवादी सांख्यविचारधारा के विकसित और विरोधी
१ भगवती ५. ९. २२५.