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________________ अभिप्राय। ["श्रीअभिधानराजेन्द्र कोष' की महत्ता एवं उपयोगिता वैसे जगविश्रुत है । विश्व के समस्त देश, प्रदेशों के दर्शन, इतिहास, पुरातत्त्व के विद्वान इससे भली विध परिचित ही नहीं, वरन् भारतीय जैन वाङ्गमय की इसको वे अपने देश में संस्थापित प्रतिमा मानते हैं । श्रीमद् राजेन्द्रसूरिजी की व्यापक प्रसिद्धि का अभी तक जो एक मात्र यह कारण है; अतः इस संबंध की दृष्टि से कोष संबंधी कुछ तो अभिप्राय प्रस्तुत ग्रन्थ में स्थान प्राप्त करने ही चाहिए। इस हेतु की पुर्ति में कुछ अभिप्राय निम्न अवतरित किये गये हैं। -सम्पादक ] मन्त्री मुनि श्री मिश्रीमल्लजी महाराज दोहा श्रुतसागर मंथन करि, रच्यो भव्य हितकोष, विबुद्ध विलोकी चित्त में, सरस लहै संतोष ॥१॥ प्राकृत अथवा मागधी, जो को शब्द चहाय, हो तो पढलो हाथ ले, मिलसी संशय नाहि ॥२॥ लक्ष आसरे, पांचरे संख्या श्लोक सुजान, गहन ग्रन्थ राजेन्द्र रच, जस लीदो भुवि आन ॥३ शब्द सुचि सुन्दर रचि, जचि सहल हिय जास, पचि परम यह औषधी, करत कर्मरुज नास ॥४॥ झूलना छन्द धन-भूप-यति-गुरुराज - पति मति स्वच्छ अति कर महनत को, क्षति गहन हति जिन आगम में गति शब्द के अर्थ सुलहनत को । भक्ति गंग सुरंग अदृष्ट हति, तिन के रस को गहनत को, राजेन्द्रसूरि, धन्यवाद कति, कलिकाल विचै चित्त चहनत को ॥ ११ दोहा होस सदा हिय में भरण, करण ज्ञान संतोष । अमिधानराजेन्द्र नित, काव्यरसिक ! पढ कोष ।। ५ । " राज, धन, भल भूप, यतिवर ! ग्रन्थ रच अनमोल यह " " धवल यश लीना जगत में क्या करूं वर्णन अह" षाढ शुक्ला अमावास्या, २०१५ વળી હર્ષ પામવા જેવું બીજું એ છે કે બીજે મહાન કેષ રતલાસમાં છપાય છે. શ્વેતામ્બર શ્રીયુત વિજયરાજેન્દ્રસૂરિજીએ પિતાના જીવનના બાવીશ વર્ષ ગાળી અમિત १ श्रीमई धनचन्द्रसूरिजी, भूपेन्द्रसूरिजी और श्रीमद् यतीन्द्रसूरिजी के गुरुराज श्रीमद् राजेन्द्रसूरिणी ।
SR No.012068
Book TitleRajendrasuri Smarak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYatindrasuri
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1957
Total Pages986
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
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