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श्री राजेन्द्रसूरि-वचनामृत । हैं, संसार में वही पुरुष देवांशी, आदर्श और पूज्य माना जाता है । ऐसे ही व्यक्ति को सब लोग सराहते हैं और उसके वचनों को बड़े आदर से श्रवण कर स्वपर का सुधार करने में समर्थ बनते हैं।
४८ दुनियां में लालसा उस मृगतृष्णा के समान है, जिसका कोई भी पार नहीं पा सकता । कोई धन-कुवेर बनने की और कोई नरपति बनने की लालसा रखता है। कोई विद्वान् होने की तो कोई महायोगी बनने की उत्कंठा रखता है। कोई न्यूझ पेपरों में प्रसिद्ध होने की तो कोई सत्ताधीश बनने की आशा रखता है। कोई दुनियांमात्र को झुकाने की तो कोई चर्चावाद में विजय पाने की जिज्ञासा रखता है। इस प्रकार लालसा के ही चक्र में प्राणी इस लालसा का अन्त नहीं पा सकते । अन्त में सर्व आशाओं को छोड़ कर संतोष धारण किया जायगा तभी शान्ति और सुख मिलेगा।
४९ संतोषी पुरुष में आपत्तिकाल के समय में धैर्यता, ऐश्वर्यावस्था में सहनशीलता, सभा के समय कुशलता, शास्त्रपरिशीलन के समय कुशाग्रता और व्यवहार करते समय सभ्यता पाकर खड़ी होती हैं। इस कारण उसको कायरता या भीरुता स्पर्श नहीं कर सकती। उसके कान, नाक, नेत्र आदि भी कभी प्रतिकूलता का व्यवहार नहीं करते । अतः संतोषी प्रतिसमय कानों से शास्त्रश्रवण, नेत्रों से नीतिवाक्यामृतों का अवलोकन और नाक से सदभावनाओं की सुगंध का ज्ञान करता रहता है, जिससे उसको पाप कर्म छ नहीं सकते।
५० आग्रही मनुष्य अपनी कल्पित बातों की पुष्टि के लिये इधर-उधर कुयुक्तियाँ खोजते हैं और उनको अपने मत की पुष्टि की ओर ले जाते हैं । मध्यस्थ दृष्टिसंपन्न व्यक्ति शास्त्र और युक्तिसिद्ध वस्तुस्वरूप को मान लेने में तनिक मी खींचतान या हठाग्रह नहीं करते । अनेकान्तवाद भी बतलाता है कि सुयुक्तिसिद्ध वस्तुस्वरूप की ओर अपने मन को लगाओ, न कि अपने मनःकल्पित वस्तुस्थिति के दुराग्रह में उतर कर असली वस्तु स्थिति के अंग को छिन्न-भिन्न करो | क्योंकि मानस की समता के लिये ही अनेकान्ततत्वज्ञान जिनेश्वरों के द्वारा प्ररूपित किया गया है। उस में तर्क करना और शंक-कांक्षा रखना आत्मगुण का घात करना है।
५१ क्षमा से आत्मा में शुभ विचार प्रगट होते हैं, फिर शुभ विचारों के बढने से अच्छे संस्कार बनते हैं और शुभ संस्कारों के बल से उत्तरोत्तर मनुष्यों का विकास होता रहता है--जिस से वे धर्म रूप बन जाते हैं । जिन अपराधों की एक वक्त क्षमा मांगी जा चूकी है, सन अपराधों को फिर से न होने देना इसी का नाम सची क्षमा है । खाली