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श्रीमद् विजयराजेन्द्रसूरि-स्मारक-ग्रंथ कृ०२ सोमवार को खाचरौद (मध्य भारत) में दीक्षा ग्रहण की एवं नाम श्री यतीन्द्रविजयजी रखा गया । वि. सं. १९५५ माघ शु० ५ को आहोर में आपकी बड़ी दीक्षा हुई । गार्हस्थ्यकाल में ही आपने धार्मिकज्ञान तखार्थाधिगमसूत्र तक प्राप्त कर लिया था । गुरुदेव के साथ दस चातुर्मास करते हुये, अध्ययनपूर्वक प्रखर पाण्डित्य प्राप्त किया । तभी तो गुरुदेवने संवत् १९६३ पौष शु०३ सोमवार को स्वर्गीय श्री भूपेन्द्रसूरिजी और आपको जगद्विख्यात् अभिधान राजेन्द्र कोष का सम्पादन-संशोधन सौंपा था, जिसे आप दोनोंने अच्छी तरह परिसमाप्त किया। वि. संवत् १९७२ में बागरा (राजस्थान) में श्रीमद्धनचन्द्रसूरिजी महाराजने आपकी व्याख्यानपद्धति पर प्रसन्न हो कर आपको व्याख्यानवाचस्पति' की पदवी दी थी। संवत् १९७९ रतलाम ( मालवा ) में सागरानन्दसूरिजी से · जैन साधु-साध्वी को श्वेतवस्त्र धारण करना या पीत वस्त्र !' इस विषय पर चर्चा हुई जिसमें आपने श्री वीरशासनानुयायी साधु-साध्वियों को वर्ण से श्वेत मानोपेत और जीर्णप्राय वस्त्र ही परिधान करना चाहिये-के पक्ष में सूत्र-ग्रन्थों के ५१ प्रमाण दिये जिनको देख कर विपक्षी को अन्त में पराजयी होना पड़ा और उसी समय मध्यस्थ विद्वन्मंडलने आपको पीताम्बर-विजेता' घोषित किया । आपने मालवा, मेवाड़, मारवाड़, गुजरात, काठियावाड़ और कच्छ में विहार कर अनेक तीर्थराजों की यात्रा की और अनेक भव्य जीवों को सन्मार्ग का पथिक बनाया। बागरा में श्रीराजेन्द्र जैन गुरुकुल, सियाणा में श्रीराजेन्द्र जैन विद्यालय और भी अनेक ग्रामों में जैन पाठशालाएँ संस्थापित करवा कर समाज से शिक्षा का अभाव दूर किया । वि. सं. १९९४ में श्रीलक्ष्मणी तीर्थ का उद्धार करवा कर प्रतिष्ठा की। वि. सं. १९९५ वै. शु० १० को आहोर ( राजस्थान ) में जैन चतुर्विध श्रीसंघने अत्युत्साह से आपको गच्छेश ( आचार्य) पद से विभूषित कर श्रीभूपेन्द्रसूरिजी के पट्ट पर विराजित किया। उसी उत्सव में मुनि श्रीगुलाबविजयजी को उपाध्याय पद दिया। आपके करकमलों से लगभग ४० प्रतिष्ठांजनशलाकाएँ सम्पन्न हुई हैं। सत्यबोध-भास्कर, राजे. न्द्रसूरि जीवनप्रभा, गुणानुरागकुलक, पीतपटाग्रह-मीमांसा, जैनर्षिपटनिर्णय, श्रीयतीन्द्रविहारदिग्दर्शन चार भाग; कोरटाजी तीर्थ का इतिहास, मेरी गोडवाड़ यात्रा, मेरी नेमाड़ यात्रा,
१-आपका जन्म संवत् १९४० वै. शुक्ला ३ को भोपाल में फूलमाली जातीय सद्गृहस्थ गंगारामजी की धर्मपत्नी मथुरादेवी की कूख से हुआ। आपका जन्म नाम बलदेव था। आपने जैनाचार्यवर्य श्रीमद्विजयराजेन्द्रसूरीश्वरजी महाराज की आज्ञा से श्रीधनविजयजी ( धनचन्द्रसूरिजी ) से संवत् १९५४ मार्गशिर शुक्ला ८ को भीनमाल में महामहोत्सव पूर्वक लघुदीक्षा ग्रहण की और विक्रम संवत् १९५७ माघ शुका पांचम को श्रीमद्विजयराजेन्द्रसूरीश्वरजी महाराजने आपको आहोर ( मारवाड़-राजस्थान ) में बृहद्दीक्षा दी। वर्तमानाचार्यने आपको उपाध्यायपद प्रदान किया। आप सक्रियापात्र, व्याख्याता और संस्कृत के अच्छे विद्वान् थे। आपने श्रीराजेन्द्रगुगमंजरी पद्यबद्धादि ग्रन्थ बनाये और आप सं. २००३ माघ शुक्ला१३ को भीनमाल में स्वर्गवासी हुए।