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________________ १४० श्रीमद् विजयराजेन्द्रसूरि - स्मारक -ग्रंथ उज्जैन, इन्दौर, मन्दसोर के प्रगणों के ग्रामों में उन्होंने अपने सिद्धान्त के सहस्रों अनुयायी बनाये और कई पाखण्डपूर्ण क्रियाओं एवं मिथ्या मान्यताओं के कलंक को जैन समाज के भाल से धोया । अपने सिद्धान्त के प्रचार की सफलता के मूल में उनका तपस्वी जीवन, सत्यवादिता, दृढव्रतपालन, साध्वाचार में अद्भुत तत्परतापूर्ण निष्ठा और उनका अदम्य शास्त्रज्ञान रहे हैं। अपने सिद्धांत के प्रचार में उनको अनेक विवाद, शास्त्रार्थ करने पड़े, कष्ट एवं परिसह सहन करने पड़े; परन्तु वे दृढव्रती अडिग रहे और अतः वे अपने उद्देश्य में सफल हुये । फलत: मालवा, गुजरात, मारवाड़ के सैकड़ों ग्राम, पुरों में और मेवाड़ के कुछ ग्रामों में आज त्रिस्तुतिक सिद्धान्त के सहस्रों अनुयायी हैं । "" श्रीमद् विजयराजेन्द्रसूरिजी के तपस्वी जीवन की जब आश्चर्य उत्पन्न करनेवाली बातें, घटनायें और वार्चायें सुनते हैं और पढ़ते हैं तो प्रत्येक सुज्ञ को यह कहना पड़ता है कि वह तपस्वी जितना दे सकता था, समाजने उससे उसका शतांश भी नहीं लिया । मितभाषी, मितभोजी, मितपरिग्रही वे एकदम थे । आलस्य वहां दर्शन मात्र को भी नहीं था । भाषण में स्पष्ट, बोलने में निर्दोष व व्यवहार में शुद्ध वे साधुत्व की प्रतिमा ही थे । मार्ग में चल रहे हैं, भयंकर जंगल में से निकल रहे हैं — एकदम ठहर गये । शिष्योंने कहा, "गुरुदेव ! ग्राम कुछ कदम दूर पर ही है । " उत्तर मिलता, " साधु को अब एकदम बढने में भी रात्रिविहार-दोष लगता है । यह तो एक झलक की भांति है । इस प्रकार विहार, आहार, ध्यान-संबंधी अनेक ऐसी घटनाओं से उनका जीवन भरा हुआ मिलता है । जंगली शेर, चीताओं से और उद्दण्ड पुरुषों से सामना कई बार उनको हुआ है; परन्तु उस तपस्वीने तपश्चरण में कभी शिथिलता को नहीं प्रविष्ट होने दिया । उन्होंने अपने कर-कमलों से जितने साधुओं को जैन भागवती दीक्षा दी थी, वे चतुर्थांश भी संख्या में उनके व्रत में कठिनतया रह पाये थे । उस समय की जैन समाज ऐसे महातपस्वी को अधिकांश में ईर्षाभरी, जलनभरी दृष्टि से देख कर ही लाभ लेने से वंचित रह गई, आज विज्ञ साधु और श्रावक दोनों इस बात को स्वीकार करते हैं । आपकी तपश्चरण में दृढ़ता के संबंध में पाठकों को कुछ स्पष्ट परिचय वर्त्तमानाचार्य श्रीमद् विजययतीन्द्रसूरीश्वरजी महाराज साहब द्वारा लिखित ' गुरुदेव के चमत्कारिक संस्मरण लेख से भी हो जायगा । तपश्चरण जैसे आप उच्चती साधु थे, वैसे ही ऊच्च कोटि के धर्मसेवक भी थे । सारभूत व्याख्यानों एवं धार्मिक, सांस्कृतिक विविध क्रिया-प्रक्रियाओं से तो आपने अपने अनुयायियों में
SR No.012068
Book TitleRajendrasuri Smarak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYatindrasuri
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1957
Total Pages986
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
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