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________________ सरस्वतीपुत्र श्रीमद् विजयराजेन्द्रसूरि । १३९ 1 संवाद समाप्त हुआ । परन्तु आप को तो आगे बढ़ना था । यह सब विधिपूर्वक हो जाने पर आपने श्री पूज्यपन का त्याग करना निश्चित किया । जावरा नगर के खाचरौद दरवाजे के आगे एक नाले के टट के पार जो वट-वृश है, वहाँ जाकर आपने श्रीपूज्य के आडम्बर - शोभा - सामग्री का त्याग किया, जिसमें मुख्य पालखी, छत्र, चमर, छड़ी, गोटा आदि हैं, जो आज भी अभिनव निर्मित श्री राजेन्द्र भवन, जावरा की विशाल अट्टालिका की प्रसिद्धि और मान का कारण बने हुये हैं । इसी आशय का जावरा-नरेश के दीवान के कर द्वारा प्रमाणित एक ताम्रपत्र श्रीसुपार्श्वनाथजी के जिनालय के पूर्वाभिमुख द्वार के बाहर दांये हाथ की ओर उत्तर शाख के समीप में लगा हुआ है । यहाँ से आप श्रीविजयराजेन्द्रसूरि नाम से प्रसिद्ध हुये । इससे आगे इस भारतीय महाविद्वान् का व्यक्तित्व कई विविध दिशाओं में पूर्ण विकसित और सफल हुआ मिलता है; परन्तु यहाँ तो मैं केवळ साहित्यसेवा, तपश्वरण, त्रिस्तुतिक सिद्धान्त - प्रचार, कुछ विशिष्ट उल्लेखनीय बातें और धर्मकृत्य इन विषयों के उपर ही वर्णित करने का प्रयास करता हूँ । वैसे तो इनके व्यक्तित्व एवं साधुत्व के दर्शन उपरोक्त नव कलमों के अध्ययन से ही स्पष्ट हो जाते हैं । प्रस्तुत ग्रंथ में ही इन कलमों संबंधी वर्णन है । जिससे सिद्ध होता है कि वे व्रत में दृढ, वचनों में अडिग, शील में अखण्ड, त्याग में अचल और आचार में परिष्कृत एवं प्रतिभावान, कठोर श्रमी, स्वाध्यायशील, शास्त्रज्ञ, समयज्ञ एवं ऊच्च श्रेणि के तपस्वी और संयमप्रधान जैन आचार्य थे । यह सिद्धान्त श्रीमद् राजेन्द्रसूरि द्वारा प्रणीत अथवा प्रारंभ किया हुआ कोई नवीन मत नहीं है । इस सिद्धान्त सम्बंधी उल्लेख कतिपय प्राचीन जैन ग्रंथों में प्राप्त होते हैं । प्रस्तुत ग्रंथ में इस सिद्धान्त संबंधी बहुत कुछ परिचय अन्यत्र दिया गया त्रिस्तुतिक सिद्धान्त है; अतः पुनरुल्लेखन से कोई विशेष तात्पर्य सिद्ध नहीं होता है । केवल यह ही कहना पर्याप्त है कि इस सिद्धान्त के मन्तव्य के अनुसार अमुक स्थलों पर देव - देवियों का स्मरण, आराधन कर्त्तव्य है और अमुक स्थलों पर नहीं । सिद्धान्त के मूल में यह भाव है कि देव-देवियों की तुर्यकमत - चार थुई के अनुसार जो प्रार्थना - स्वीकार की गई है, इस सिद्धान्त के अनुयायी उसे अस्वीकार करते हैं । आपने त्रिस्तुतिक सिद्धान्त का प्रचार करना ही अपने साधुजीवन का मुख्य लक्ष्य बनाया और आप अतः त्रिस्तुतिक श्वेताम्बर जैनाचार्य कहलाये । थरादप्रदेश (उत्तर - गूर्जर ), मरुधर - प्रान्त के साचोर, भीनमाल, जसवंतपुरा, जालोर, बाली के प्रग़णों में, सिरोही के जोरामगरा में तथा मालत्र प्रदेश के धार - नैमाड़, रतलाम, जावरा,
SR No.012068
Book TitleRajendrasuri Smarak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYatindrasuri
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1957
Total Pages986
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
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