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________________ सत्य मार्गदर्शन । ११५ होते । आपके सन्मुख जो भी समस्याएँ आयीं आपने उनका ऐसा निरसन किया कि प्रतिक्रियावादियों की प्रतिक्रियाएं सदा शिथिल और विफल ही रहीं। प्रतिक्रियावादियों को आपका कहना यही था कि हम जैनधर्मावलम्बियों का प्रत्येक अनुष्ठान अध्यात्मलक्षी होता है। जैनदर्शन हम को संसार के सावद्य-पापजन्य मार्गों से अलग कर निवृत्ति की ओर ही ले जाता है। वास्तव में निवृत्तिप्रधान कार्य ही हम को कर्म से दूर कर, शाश्वत और अनन्तसुख ( मोक्ष ) की ओर अग्रसर करता है। भगवान् श्रीतीर्थंकर वीतराग द्वारा प्रणीत तत्वार्थ पर वास्तविक श्रद्धा होने को ' सम्यग्दर्शन ' कहते हैं। सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र की वास्तविक आराधना ही मोक्ष का सच्चा मार्ग है। एक और तो हम 'करेमि भन्ते ! सामाइयं सावजं जोगं पञ्चक्खामि जाव नियमं पज्जुवासामि दुविहं तिविहेणं०' इत्यादि सूत्र से द्विकरण त्रियोग से समस्त सावद्य योगों का त्याग कर पापों के आलोचन में प्रवृत्त होते हुये संसार के प्राणिमात्र से वैरविरोध त्याग कर मैत्रीभाव में रमण करते हैं, उसी क्रिया के अन्दर अविरति भोगासक्त देवि-देवताओं की स्तुति करना कहाँ तक ठीक है। हमें आत्मकल्याण करना है तो इस प्रकार की मिथ्या क्रियाओं से हमको शीघ्र दूर होना पड़ेगा। शास्त्रकारोंने जिस मार्ग को आत्महितकर बतलाया है, उसे ही पालन करना हमारा प्रथम कर्तव्य है। जो बात शास्त्रसम्मत हो, न्याययुक्त हो और पूर्वाचार्य समर्थित एवं समाचारित हो उसे ही हमें पवित्र बुद्धि और ममत्वरहित हो कर ग्रहण करना चाहिये । श्रीदशवैकालिकसूत्र में कहा है किः-- " धम्मो मङ्गलमुक्किद्वं, अहिंसा संजमो तवो। देवा वि तं नमसंति, जस्स धम्मे सयामणो॥" अहिंसा, संयम और तपरूप जिनेश्वर-प्रणीत धर्म सभी मंगलों में उत्कृष्ट मंगल है । जिस व्यक्ति का मन निरंजन धर्म में लगा रहता है, उसको देवेन्द्रादि चारों निकाय के देवता भी वंदन करते हैं। आवश्यकसूत्र की नियुक्ति में भी पूज्यपाद श्रीश्रीभद्रबाहुस्वामी भी फरमाते हैं कि: " असंजयं न वंदिजा, मायरं पियरं सुअं। सेणावई पसत्थारं, रायाणो देवयाणि य ॥" बस गुरुदेव का समाज को यही कहना था । अब यहाँ मैं पाठकों को सप्रमाण रीति से बतला देना चाहती हूं कि वास्तव में श्री राजेन्द्रसूरिजी महाराजने कोई भी नुतन पंथ या मत नहीं चलाया; किन्तु वीतराग के सत्य
SR No.012068
Book TitleRajendrasuri Smarak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYatindrasuri
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1957
Total Pages986
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
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