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________________ गुरुदेष रखित-सिद्धहेम प्राकृत टीका । १०७ लङ्गः शाकटायनस्यै व ३ । ४ । १११ तथा व्योर्लघुप्रयत्नतरः शाकटायनस्य ८ । ३ । १८ सर्वत्र शाकल्यस्य ८।४। ५१ इकोऽसवणे शाकल्यस्य हूस्वश्च ६ । १। १२० लोपः शाक. ल्यस्य ८ । ३ । १९ अवङ् स्फोटायनस्य ६ । १ । १२२ इत्यादि पाणिनीय अष्टाध्यायी सूत्रों से यह स्वयं जाना जा सकता है कि प्राचीन समय से ही व्याकरण का विषय महत्वभरा रहा है । व्याकरण का विषय कठिन ही होता है, फिर भी व्याकरण को सुगम बनाकर पठनपाठनोपयोगी बना देने पर ही रचयिता का परिश्रम सफल एवं सिद्ध होता है। सिद्धहैम व्याकरण की रचना सुगम और पठन-पाठन के लिये अतीव उपयोगी सिद्ध हो चुकी है। आठवें अध्याय में प्राकृत विषय देकर प्राकृत ज्ञान का सारा विवरण बड़ी ही उत्तम शैली से बतलाया गया है। इस प्राकृत ज्ञान की आवश्यकता को पूरी करने के लिये अनेक टीकाएँ अलग २ संस्कृत एवं अन्य भाषादि में बनाई गई हैं। ___ गुरुदेव श्रीमद्विजयराजेन्द्रसूरीश्वरजी महाराज सा. रचित 'प्राकृत व्याकृति टीका' ' श्रीराजेन्द्रीय टीका ' का ही यहां पर परिचय कराना आवश्यक समझा गया है । श्रीसिद्धहैम का ८ वाँ अध्याय प्राकृत व्याकरण के नाम से भी प्रसिद्ध है। वर्तमान में उपलब्ध टीकाओं में से इस 'राजेन्द्रीय प्राकृत टीका' की अपनी नई विशिष्टता है। इसके पढ़ने से विद्यार्थियों को मूल सूत्र के साथ साथ संस्कृत-श्लोकों से सारी बातों का पर्याप्त ज्ञान प्राप्त हो जाता है। श्लोक में ही सूत्रों की वृत्ति उदाहरण के साथ एवं शब्दप्रयोग की सिद्धि सरल पद्धति से की गई है । यह प्राकृत शब्दसागर श्री अभिधान राजेन्द्र कोष के प्रथम भाग में प्रथमतया प्रकाशित की गई है। साथ ही में शब्दरूपावली भी बतलाई गई है जिस से प्राकृत शब्दों के रूप वैकल्पिक एवं आर्ष प्रयोग भी अच्छी तरह से जाने जा सकते हैं। फिर भी इस टीका का ध्येय यही रहा हुआ मालूम होता है कि सामान्य संस्कृतज्ञ भी इस टीका से प्राकृत का ज्ञान भली भांति कर सकता है। रचयिता का परिश्रम पठन-पाठन में सुगम एवं अतीव उपयुक्त हुआ ही सर्वत्र दृष्टिगोचर हुआ है । प्रस्तुत प्राकृत व्याकृति-श्री राजेन्द्रीय प्राकृत टीका आबालवृद्धों के लिये अतीव उपयोगी एवं तद्विषयक सारी सामग्री से परिपूर्ण है । अन्य भी आप की रचित व्याकरण टीकाओं में ' सारस्वत चंद्रिका ' आदि पर भी टीकाएँ हैं । जिनमें से यही एक टीका प्रकाशित हो चुकी है। यह टीका प्राकृत जिज्ञासुओं के लिये बड़े भारी महत्त्व की मानी जाती है । प्राकृत व्याकरण का बोध होना प्राचीन काल से अत्यावश्यक माना जा रहा है । प्राकृत एवं संस्कृत
SR No.012068
Book TitleRajendrasuri Smarak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYatindrasuri
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1957
Total Pages986
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
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