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________________ युगप्रवर्तक श्रीराजेन्द्रसूरिजी १०३ समाज एक ऐसी संगीन स्थिति में गुजर रहा था । उन यतियो में भी उक्त यति था, बिल्कुल साधारण आकृति, तेजस्वी, दुबला-पतला, केवल हड्डियों का ढाचा, साधारण क् धारी, घुटनों तक चोलपटा; परन्तु महात्यागी साधु । शरीर को देख कर यह नहीं कहा जा सकता कि यही पुरुष साधु व यति समाज की गन्दगी को समूल जला देगा | इस क्षीणकाय व्यक्तिने, लोगों की जिन्दगी की पतवार को जो कि अन्ध विश्वास व भौतिकता के भँवर की ओर जा रही थी, जिसके खीवैया लालबी व भोगी थे, सच्चे मार्ग की ओर मोड़ दिया । उन्होंने समाज में एक ऐसी तरंग फैलाई कि लोगों की भावनाओं में एक क्रांतिकारी तूफान आ गया और वे यतियों के पाखंडपूर्ण शासन से छुटकारा पाने के लिये कटिबद्ध हो गये । फलस्वरूप अंत में यतियों का प्रभाव हट गया और जैन शासन एक नई जिन्दगी पाने लगा । मैं इस महापुरुष के जीवन पर कुछ भी नहीं लिखना चाहता । मैं ने उनके जीवन मैं क्या देखा उसके बारे में कुछ लिखूँगा । साधु - जीवन ग्रहण करने के बाद उन्होंने जो प्रथम कार्य किया वह था साधु - समाज में सुधार। साधु जीवन को आधुनिक भौतिकवाद के प्रभाव से हटाने का श्रेय इसी महान् पुरुष को है । साधु साधारण आदमी का आत्मकल्याण के मार्ग में नैतृत्व करता है । वह अपनी सादगी, त्याग और तपस्या से जनता की आत्मा पर एक अमिट छाप छोड़ता है, जिससे आत्मा का आकर्षण त्याग, सादगी और तपस्या की ओर बढ़ता है । साधारण जनता की रुचि इस प्रकार धर्म की ओर मुड़ जाती है । जहाँ आत्मा को एक अलौकिक सुख का आभास होता है, वहीं सच्चा सुख है । मनुष्य लोभ के वशीभूत होकर दूसरों का नुकसान कर बैठता है । जब उसका दायरा बढ़ जाता है तो वह निर्भीक होकर निरीह व निर्बल लोगों को सताता है । वह दूसरों के हकों को छीन कर बहुत खुश होता है । फलस्वरूप जनता उसके अत्याचारों से तंग आकर विद्रोह कर बैठती है और उसका क्षणिक सुख जो कि वह कभी न समाप्त होनेवाला समझता था, समाप्त हो जाता है। विश्व - इतिहास इसका साक्षी है । इतिहास इस प्रकार के संघर्षों का लेखा है। यदि ' जीओ और जीने दो' सिद्धान्त का पालन किया जाय जो कि सत्य, अहिंसा, प्रेम और सेवा पर आधारित है, तो संभव है संसार में शांति स्थायी हो सकती है । साधारण मनुष्य में इतनी बुद्धि नहीं होती कि वह इस गहन विषय में इतना गहरा उतरे। ऐसी परिस्थिति में साधुओं का कर्तव्य हो जाता है कि वे समाज के हर पहलू पर, हर कदम पर पहरा देवें । समाज में ऐसी प्रकृति बढ़ने नहीं देवें । यह उसी समय संभव हो सकता है, जबकि साधु का स्वयं का जीवन त्याग और संयम की भावना से ओतप्रोत हो । जैनक्षेत्र में इस सिद्धान्त का मर्म सब से पहले बीसवीं शताब्दी में इसी महापुरुषने समझाया। उन्होंने ऐसे विलासी यतियों का डट कर विरोध किया । पहले
SR No.012068
Book TitleRajendrasuri Smarak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYatindrasuri
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1957
Total Pages986
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
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