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प्रातःस्मरणीय सत्पुरुष और हमारा कर्त्तव्य
सूरजचन्द सत्यप्रेमी ( डाँगी) दुनिया ऐसे ही सत्पुरुषों का नित्य स्मरण रखती है जिसने प्रवाह में बहते हुए प्राणियों को पुनः सन्मार्ग पर स्थिर किया हो । भगवान् महावीरस्वामीने अपने उपासकों के लिये एक विशेषण का प्रयोग किया है:
"पडि सोय गामी" स्रोत से उल्टा चलनेवाला अर्थात्-संसार जिस ओर जारहा है उस तरफ से उसे मोड़ कर शुद्धिमय जीवन की ओर लगानेवाला ही सच्चा साधक है । गीता में भी यही कहा है:
" या निशा सर्वभूतानाम् , तस्यां जागति संयमी ।
__यस्यां जाग्रति भूतानि, सा निशा पश्यतो मुनेः॥" सब प्राणियों के लिये जो रात्रि है, संयमी प्राणियों के लिये वही जाग्रति का स्थान है। अर्थात् संयम के मार्ग में हम लोग सोये हुए हैं और सत्पुरुष जाग रहे हैं। और प्राणी जहां जाग रहे हैं संयमी वहीं सोये हैं । अर्थात् ममत्व के मार्ग में हम सब जाग्रत हैं और समत्व के मार्ग में सोये हैं । सन्त, महन्त ममत्व के मार्ग में सोये हैं और समत्व में जाग्रत हैं।
तात्पर्य यह है कि जो सत्पुरुष हमें विषयों के चक्कर में से निकाल कर शान्ति के रास्ते पर बढ़ने की प्रेरणा दे उसीका स्मरण करने योग्य है। आज हम जिस महापुरुष की अर्द्धशताब्दी महोत्सव के उपलक्ष में अभिनन्दन-ग्रन्थ भेंट करने जा रहे हैं वह ऐसे ही महान् आत्मा की स्मृति है जिसने संघ के चारों पायों का आन्दोलन किया था ।
जैन तीर्थ के साधु-साध्वी और श्रावक-श्राविका मानवता के मूल्य को भूल गये थे और संसार की तुच्छ आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये संवर-धर्म की शुद्ध उपासना के समय भी देव, गुरु, धर्म के साथ देवी-देवताओं की स्तुति में मन लगाते थे। उज्ज्वल सात्विक सीधेसाधे वेष को छोड़ कर साधु-साध्वी भी शौकीन बन गये थे और सांसारिक आवश्यकताओं से चित्त को नहीं हटा कर वीतराग के पवित्र धर्म की ओर मुड़ने के स्थान पर स्वयं भी कीचड़ में फस्ते जा रहे थे । उन्हें इस कीचड़ में से इस सत्पुरुषने झटका देकर उबार लिया ।
अरिहन्तो मह देवो, जावजीवं सुसाहुण गुरुणो । जिणपण्णत्तं तत्तं, इअ सम्मतं मए गहियं ॥