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________________ मरुधर और मालवे के पांच तीर्थ । नामाभिधान से विख्यात यह चैत्य बनवाया था। पहले यह ७२-जिनालय था । परन्तु सं. १३३८ के लगभग अलाउद्दीनने धर्मान्धता से प्रेरित हो जालोर ( जाबालीपुर ) पर चढ़ाई की थी; तब उस नराधम के पापी हाथों से इस गिरि एवं नगर के आबू के सुप्रसिद्ध मन्दिरों की स्पर्धा करनेवाले मनोहर एवं दिव्य मन्दिरों का नाश हुआ था। उन मन्दिरों की याद दिलानेवाली तोपखाना-मस्जिद जिसे खण्डित मन्दिरों के पत्थरों से धर्मान्ध यवनोंने बनवाई थी वह मस्जिद विद्यमान है। इस तोपखाने में लगे अधिकांश पत्थर खण्डित मंदिरों के हैं और अखण्डित भाग तो जैन पद्धति के अनुसार है। इस में स्थान-स्थान पर स्तम्भों और शिलाओं पर लेख हैं। जिनमें कितने ही लेख सं. ११९४, १२३९, १२६८, १३२० आदि के हैं। ___उक्त दो चैत्यों के सिवाय चौमुख-अष्टापदावतार चैत्य भी प्राचीन है। यह चैत्य कब किसने बनवाया यह अज्ञात है। विक्रम संवत् १०८० में यहीं ( जालोर में ) रह कर श्रीश्री बुद्धिसागरसूरिवरने सात हजार श्लोक परिमित 'श्री बुद्धिसागर व्याकरण' बनाई थी, उसकी प्रशस्ति में लिखा है किः श्रीविक्रमादित्यनरेन्द्रकालात् साशीति के याति समासहस्रे । सश्रीकजाबालीपुरे तदाद्य दृब्धं मया सप्त सहस्र कल्यम् ॥११॥ बहुत वर्षों तक स्वर्णगिरि के ये ध्वस्त मन्दिर जीर्णावस्था में ही रहे। विक्रम की सतरहवीं शताब्दी में जोधपुरनिवासी और जालोर के सर्वाधिकारी मंत्री श्री जयमल मुहणोत ने यहाँ के सब ध्वस्त जिनालयों का निजोपार्जित लक्ष्मी से पुनरुद्धार करवाया था और वि० सं० १६८१, १६८३, १६८६ में अलग २ तीन बार महामहोत्सवपूर्वक प्राणप्रतिष्ठाएँ करवा कर सैंकडों जिनप्रतिमाएँ प्रतिष्ठित करवाई थीं । सांचोर (राजस्थान) में भी जयमलजी की बनवाई प्रतिमाएँ प्रतिष्ठित हैं । इस समय वे ही प्रतिमाएँ प्रायः किल्ले के सब चैत्यों में विराजमान हैं। पीछे से इन सब मन्दिरों में राजकीय कर्मचारियोंने राजकीय युद्ध-सामग्री आदि भर कर इनके चारों ओर कांटे लगा दिये थे। विहारानुक्रम से महान् ज्योतिर्धर आगमरहस्यवेदी प्रभु श्रीमद्विजयराजेन्द्रसूरीश्वरजी महाराज का वि. सं. १९३२ के उत्तरार्ध में जालोर पधारना हुआ । आप से जिनालयों की उक्त दशा देखी न गई। आपने तत्काल राजकर्मचारियों से मन्दिरों की मांग की और उनको अनेक प्रकार से समझाया; परन्तु जब वे किसी प्रकार नहीं माने तो गुरुदेवने जनता में दृढतापूर्वक घोषणा की कि जब तक स्वर्णगिरि के तीनों जिनालयों को राजकीय शासन से मुक्त नहीं करवाऊंगा, तब तक मैं नित्य एक ही बार आहार लूंगा
SR No.012068
Book TitleRajendrasuri Smarak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYatindrasuri
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1957
Total Pages986
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
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