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मरुधर और मानवे के पांच ती । विक्रम की ७ वीं शताब्दी में इस प्रान्त में बेसाला नाम का एक अच्छा कस्बा जाबाद था। जिसमें जैन श्वेताम्बरों के सैंकड़ों घर थे । वहाँ एक भव्य - मनोहर विशाल सौध. शिखरी जिनालय था । इसके प्रतिष्ठाकारक आचार्य का नाम क्या था और वे किस गच्छ के थे यह अज्ञात है । मात्र जिनालय के एक स्तंभ पर 'सं. ८१३ श्रीमहावीर' इतना लिखा है।
बेसाला पर मेमन डाकुओं के नियमित हमले होते रहने से जनता उसे छोड़ कर अन्यत्र जा बसी, डाकुओं ने मन्दिर पर भी आक्रमण करके उस को तोड़ डाला, किसी प्रकार प्रतिमा को बचा ख्यिा गया । जनश्रुत्यनुसार कोमता के निवासी संघवी पालजी प्रतिमाजी को एक शकर में विराजमान कर कोमता लेजा रहे थे कि शकट भांडवा में जहां वर्तमान में चैत्य है, वहाँ आकर रुक गया और लाख-लाख प्रयत्न करने पर भी जब गाड़ी नहीं चली तो सब निराश हो गए । रात्रि के समय अर्ध-जागृतावस्था में पाल जी को स्वप्न आया कि प्रतिमा को इसी स्थान पर चैत्य बनवा कर उस में विराजमान कर दो। स्वप्नानुसार पालजी संघवी ने यह मन्दिर विक्रम संवत् १२३३ माघ सुद ५ गुरुवार को बनवा कर महामहोत्सव सह उक्त प्रभावशाली प्रतिमा को विराजमान कर दी । आज भी यहाँ पालजी संघवी के वंशज ही प्रति वर्ष मन्दिर पर ध्वजा चढ़ाते हैं। इसका प्रथम जीर्णोद्धार वि. सं. १३५९ में और द्वितीय जीर्णोद्धार विक्रम संवत् १६५४ में दियावट पट्टी के श्री जैन श्वेताम्बर श्री संघने करवाया था।
- विक्रमीय २० वीं शताब्दी के महान् ज्योतिर्धर परमकियोद्धारक प्रभु श्रीमद्विजयराजेन्द्रसूरीश्वरजी महाराज जब आहोर से संवत् १९५५ में इधर पधारे तो समीपवर्ती ग्रामों के निवासी श्रीसंघने उक्त प्रतिमा को यहाँ से उठा कर अन्यत्र विराजमान करने की प्रार्थना की । इस पर गुरुदेवने प्रतिमा को यहां से नहीं उठाने और इसी चैत्य का विधिपूर्वक पुनरोद्धार• कार्य सम्पन्न करने को कहा । गुरुदेवने सारी पट्टी में भ्रमण कर जीर्णोद्धार के लिये उपदेश भी दिये।
स्वर्गवास के समय वि. सं. १९६३ में राजगढ़ (मध्य भारत ) में गुरुदेवने कोरटा, जालोर, तालनपुर और मोहनखेड़ा के साथ इस तीर्थ की भी व्यवस्था-उद्धारादि सम्पन्न करवाने का वर्तमानाचार्य श्रीयतीन्द्रसूरिजी को आदेश दिया था। आपने भी गुर्वाज्ञा से उक्त समस्त तीर्थों की व्यवस्था तथा उद्धारादि के लिये स्थान-स्थान के जैन श्री संघ को उपदेश दे-देकर सब तीर्थों का उद्धार कार्य करवाया। श्री अभिधान राजेन्द्र कोष के संपादन और उसकी अर्थव्यवस्था में लग जाने से थोड़े विलंब से इस तीर्थ के तृतीयोद्धार को आपने वि. सं. १९८८ में प्रारंभ करवाया जो वि. सं. २००७ में पूर्ण हुवा । इसकी प्रतिष्ठा का महामहोत्सव वि. सं.
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