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________________ अल्यात्मवादी कवि श्रीमद् राजेन्द्रसूरि । जसु नामथी रोगा, सोग वियोगा, कष्ट कुयोगा लहि शंका, भांडवपुर राजे, सकल समाजे, वीर विराजे अति बङ्का ॥१॥ डायण ने शायण, प्रेत परायण, भृत भवायण सहु भाँजे, चूड़ेल चंडाला, अति विकराला, सकत सियाला नहीं गाजे । दुस्मण ने दाटे, कुष्ट हि काटे, भय नहीं वाटे बलि रङ्का, भांडवपुर राजे, सकल समाजे, वीर विराजे अति बङ्का ।।२।। सब काम समारे, सर्प निवारे, कुमति वारे, अरिहन्ता, जल-जलन-भगन्दर, मंत्र-वशङ्कर, वारण-शंकर समरन्ता । ए सूरि राजेन्द्रा, हरे भव-फन्दा, नाम महन्दा जस डङ्का, भांडवपुर राजे, सकल समाजे, वीर विराजे अति बङ्का ।। ३ ॥ इन छन्दों को जो मनुष्य श्रद्धापूर्वक प्रभात में नित्य स्मरण के रूप से पाठ करता है उसको स्वयं ज्ञात होगा कि वास्तव में इन छंदों के पढने से आत्मा को कितनी शान्ति प्राप्त होती है । गुरुदेवने प्रभुस्तव की संस्कृत में भी रचना की है-जो कितनी रोचक, मधुर व भावपूर्ण है। ॐ ही श्री मंत्रयुक्तं सकलसुखकरं पार्श्वयक्षोपशोभ, कल्याणानां निवासं शिवपदसुखदं दुःखदौर्भाग्यनाशम् । सौम्याकारं जिनेन्द्रं मुनिहृदिरमणं नीलवर्ण प्रतीतम् , आहोरे संघचैत्ये सबलहितकरं गोडिपार्श्व तमीडे ॥१॥ यस्याङ्घौ नित्यपूजां भजति सुरवरो नागराजः सुयुक्त्या, सर्वेन्द्रा भक्तियुक्ता नरपति निवहा यस्य शोभा स्वभावात् । तन्वन्ती स्नेहरक्तः शुभमतिविभवः स्तोतीयं धर्मराज, आहोरे संघचैत्ये सबलहितकरं गोडिपार्श्व तमीड़े ॥२॥ वामेयं तीर्थनाथं सुमतिसुगतिदं ध्वस्त कर्मप्रपञ्चम् , योगीन्द्रोगगम्यं प्रभुवरमनिशं विश्ववंद्य जिनेशम् । योऽदात्सत्सौख्यमालां गदितसुसमयं श्रीलराजेन्द्रस, आहोरे संघचैत्ये सबलहितकरं गोडिपावे तमीड़े ॥३॥ अलंकारमयी रचनायें एवं कृतियाँ ही काव्य नहीं कही जातीं । जिसके पढने से चितवृत्ति स्थिर बन जाती है, अनुपम भावों की लहर उठती है, वह कृति उत्तम रचना अथवा काव्य होती है । उत्तम भक्ति-काव्य मुक्तिपथ-प्रदर्शक और प्रभुभक्ति-रसस्वादनकर होता
SR No.012068
Book TitleRajendrasuri Smarak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYatindrasuri
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1957
Total Pages986
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
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