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________________ अध्यात्मवादी कवि श्रीमद् राजेन्द्रसूरि । अनुभव करता रहता है और काव्यों का रस पान करके अपने जीवन को सफल बना लेता है । रस की दृष्टि से काव्य के नौ रस हैं-शृंगार, करुण, हास्य, रौद्र, वीर, भयानक, वीभत्स, अद्भुत और शान्त । इन नौ रसों के स्थायी भाव इस प्रकार से हैं-शृंगार का रति, हास्य का हँसी, करुण का शोक, रौद्र का क्रोध, वीर का उत्साह, भयानक का भय, वीभत्स का जुगुप्सा, अद्भुत का विस्मय और शान्त का शान्ति है । जो कवि इन नौ रस का ज्ञाता है वह साहित्य की वृद्धि करता है । कविता करना यह कुदरत की देन है। एक कवि वह है जो स्वाभाविक भावों से काव्य-कला अपने हृदय के उदगारों से बाहर निकालता है और वह कविता कविता दिखाई देती है । दूसरा कवि वह है जो अपनी रचना-साहित्य को इधरउधर टंटोल कर बनाता है । स्वाभाविक कविता को पढ़ने से जो मन को आनन्द प्राप्त होता है, वह कृत्रिम कविता से नहीं। यहाँ शान्त रस का स्रोत किस भाँति स्व० कविवर श्रीमद् राजेन्द्रसूरिजी महाराजने बहाया है, इस दृष्टिकोणको रखते हुए उनके बनाये हुये कुछ गीतों के अंश पाठकों के सामने रखना हैं। मोह तणी गति मोटी हो मल्लि जिन, मोह तणी गति मोटी ॥ बाहिर लोकमां मगनता दीसे, अंतर कपट कसाई । मेख देखाडी जन भरमावे, पुद्गल जाको भाई हो । म० १ ॥ जाके उदये पण्डित जन पिता, आगम अर्थ विगोड़े। शिवनारीना सुख अति सुन्दर, छिनमा तेह विखोड़े हो । म०२॥ लागे लोक प्रवाहमां मूरख, भाष जीतुं मोह । बखतर बिन संग्राम निश्चे, गात्र होवे जोह हो ॥ म०३॥ जिह्वा रस लंपट जस किरति, छोड़े जगतनी पूजा। आशा पास तजे जो जोगी, जाके नहिं कहुं दूजा हो । म०४ ॥ भोयणी नगर में मल्लि जिननी, यात्रा जुगते कीनी । सूरिराजेन्द्र सूत्र संभालो, संवर संगति लीनी हो । म०५॥ मोह की शित्तर कोड़ाकोड़ी सागरोपम की स्थितिवाली गति बड़ी विचित्र है, जो आत्मा को भवमुक्त होने में बाधा पहुंचाती है। अन्त में श्रीराजेन्द्रसूरिंजी कहते हैं कि हे भव्यों ! भोयणी नगर में मल्लि जिनेशकी भावपूर्ण यात्रा करते हुए सूत्रों को संभालो और संवर के साथ संगति करो।
SR No.012068
Book TitleRajendrasuri Smarak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYatindrasuri
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1957
Total Pages986
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
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