SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 119
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्रीमद् विजयराजेन्द्रसूरि-स्मारक-ग्रंथ " चामुण्ड वन में ध्यान में ये लीन थे भगवान के, तब एक आकर दुष्टने मारे इन्हें शर तान के । उन तीर में से एक भी इन के न जा तन से अड़ा, कर जोड़ उलटा नीच वह इन के पदों में गिर पड़ा ॥" " दौड़ा अचानक चोर इनको मारने असि से वहीं। पर गिर पड़ा वह वीच में ही, जा सका इन तक नहीं ।। जब चेतना आई उसे, जा पाँव में इनके गिरा।। 'होगा न ऐसा और अब'-वह यह प्रतिज्ञा कर फिरा ॥" चामुण्डवन मारवाड़ में जालोर-प्रान्त के मोदरा ग्राम के समीप है। इसमें चामुण्डा. देवी का देवल होने से यह उसके नाम से ही प्रख्यात है । इसमें पहले सघन एवं बीहड़ झाड़ी थी, जिसमें चोरों एवं हिंसक जंतुओं का भारी भय था। गुरुदेव इसी वन में आठ-आठ उपवासों की तपस्या करते हुए पद्मासन से प्रभुध्यान में मग्न थे । उस समय किसी दुष्टने मारने के लिये इन पर तीर फेंके, परन्तु एक भी तीर इन के शरीर का स्पर्श नहीं कर सका। बस, वह दुष्ट उलटा क्षमा मांग कर चला गया। यहीं पर कोई तस्कर हाथ में तलवार लेकर आपको मारने के लिये दौड़ा, परन्तु वह आप के पास नहीं पहुंच पाया, बीच में ही मूर्छा खा कर गिर पड़ा । कुछ चेतना आई तब गुरुदेव के चरणों में आकर उसने क्षमा प्रार्थना की और भविष्य में ऐसा घातकी काम कभी नहीं करूंगा ऐसी प्रतिज्ञा लेकर वह वहाँ से अपने घर गया। ___ गुरुदेव कई दिनों तक उष्णकाल में आग के समान तपी हुई पर्वत की शिलाओं और नदी, नालों की रेत पर आतापना लेते थे। शीतकाल में असह्य ठंड में नम शरीर नदी या तालाब के तट पर अथवा जंगल में वृक्षतले खड़े-खड़े कायोत्सर्गध्यान करते थे । वर्षाकाल में स्वाध्याय--ध्यान और तपस्या में निरत रह कर इन्द्रिय दमन करते थे । प्रतिदिन संध्या प्रतिक्रमण के अनन्तर रात्रि में १२ बजे से ३॥ बजे तक आसन लगा कर बिना किसी व्यग्रता के प्रभु के ध्यान में मग्न रहते थे । अतः एव सहज पता लग सकता है कि आपका आत्म-बल, तपश्चरण एवं समाधियोग कितना प्रबल और कितना दृढ़ था। इस प्रकार की आत्म-साधना करनेवाली आत्मा संसार में विरल ही पाई जाती है । इस ध्यान-समाधि में आपको कई भावी घटनाओं का विशद भान भी हो आता था । उनमें की कुछ घटनाएँ दिग्दर्शनमात्र के लिये यहाँ उल्लिखित की जाती हैं जो पूर्णतः सत्य हैं।
SR No.012068
Book TitleRajendrasuri Smarak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYatindrasuri
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1957
Total Pages986
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy