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श्रीमद् विजयराजेन्द्रसूरि-स्मारक-ग्रंथ रूप ही माना जा सकता है। उनके विद्वान् शिष्योंने उनकी इस कृति को घोर परिश्रम करके संसार के सामने उपस्थित किया यह एक बड़ा भारी उपकार किया है। यदि वे अपने कंधों पर इस भार को न उठाते तो यह कृति और श्रीराजेन्द्रसूरिजी का चौदह वर्ष का अगाध परिश्रम व्यर्थ चला जाता और यह रचना केवल मात्र दीमकों के उपयोग में आती या पत्थर अथवा लकड़ी के कपाटों को सुशोभित करती । इतने बड़े ग्रन्थ को उठाकर देखने में भी उपेक्षा बुद्धि रहती । संसार के विद्वान् जो इस ग्रंथ से आज लाभ उठा रहे हैं वे वंचित रह जाते । पश्चिमदेशीय विद्वान् इस ग्रंथ को देखकर दांतों तले अङ्गुली दबां जाते हैं और कहते हैं कि भारतवर्ष में धार्मिक और आध्यात्मिक विद्वानों की खानें हैं जिनमें से प्रति युग में अच्छे २ मौलिक विद्वान् , दार्शनिक, सैद्धान्तिक, राजनैतिक युगपुरुष निकलते रहते हैं और भारत का नाम प्रज्वलित करते रहते हैं। उन्हीं युगपुरुषों में श्रीराजेन्द्रसूरिजी का नाम भी लिया जा रहा है । इस अभिधान राजेन्द्र कोष के संबंध में संसार के विद्वानों की क्या सम्मतियां हैं वे इसी स्मारक-ग्रंथ में अन्यत्र दी गई हैं। उनसे आपको खूब अच्छी तरह विश्वास हो जायगा कि श्रीराजेन्द्रसूरीश्वरजी अपने समय के कौन और क्या थे ! और उन्होंने क्या किया !