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Sumati-Jnana ___इस ग्रन्थ में आठवें भव में ऐसे ही व्यापक प्रसंग हैं जो शंखपुर के राजा की कन्या रत्नावली से संबंधित हैं। राजकन्या अत्यन्त रूपवती थी, उसके लिए उचित वर देखने कई व्यक्ति भेजे गये। उनको यह भी आदेश दिया गया कि वे सुयोग्य व्यक्ति का चित्र बनाकर लावें। इस कार्य के लिए अयोध्या की ओर भूषण एवं चित्रमति नाम के चित्रकारों को भेजा गया। उन्होनें राजकमार गणचन्द्र को धनष चलाते हए देखा। उसका चित्र एक बार देखने पर नहीं बना सके तो राजकुमार के सामने वे स्वयं को चित्रकार बताते हुए पहुँचे। उन्होनें राजकुमारी का एक चित्र भी राजकुमार के सम्मुख प्रस्तुत किया। गुणचन्द्र ने उसको देखकर कहा कि यह चित्र आँखों को सुख देने वाला है। तुम सच्चे अर्थ में चित्रकार हो तभी ऐसा चित्र बना पाये। राजकुमारी के विशाल नेत्र दाहिने हाथ में रम्य सयवत्ता अंकित था। चित्र स्वयं अपने मूल. रूप को प्रतिध्वनित कर रहा था। राजकुमार ने कहा कि चित्र इसलिए भी सुंदर बन पड़ा कि राजकुमारी स्वयं सुंदर है। राजकुमार ने दोनों ही चित्रकारों को, चित्र से प्रभावित होकर, एक लाख दीनार (दोणर लक्खो) पुरस्कार के रूप में दिये। चित्र में रेखान्यास' तक राजकुमारी की सुंदरता के कारण छिप गये। राजकुमार स्वयं भी अच्छा चित्रकार था। अतः उसने तूलिका की सहायता से रंगों का मिश्रण करके अपने भावों के अनुरूप विद्याधर युगल का चित्र बनाया। राजकुमारी के चित्र में भी उसने कुछ पद लिखे। कालान्तर में दोनों का विवाह भी हो गया। इस प्रकार सारे प्रसंग में जो चित्रकला का वर्णन आता है वह पारंपरिक होते हुए भी अपनी स्थानीय विशेषताओं के लिए हुए है। साथ ही मेवाड़ की तत्कालीन चित्रकला की विकास परंपरा दर्शाती है किन्तु इतना होते हुए भी मेवाड़ में चित्रकला का प्रामाणिक क्रम १२२६ ई. से बनता है, जिनमे उत्कीर्ण रेखांकन एवं सचित्र ग्रन्थों का विवरण इस प्रकार है१. शिलोत्कीर्ण रेखांकन समिद्धेश्वर महादेव मंदिर, चित्तौड़, वि. सं. १२८६ (१२२६ ई.) २. श्रावक प्रतिक्रमणसूत्रचूर्णि, आघाटपुर, वि. सं. १३१७ (१२६० ई.) (चित्र-१) ३. शिलोत्कीर्ण रेखांकन, गंगरार, वि. सं. १३७५-७६ (१३१७-१८ ई.) ४. कल्पसूत्र, सोमेश्वर ग्राम गोड़वाड़, वि. सं. १४७५ (१४१८ ई.) ५. सुपासनाहचरियं, देलवाड़ा, वि. सं. १४८० (१४२३ ई.) (चित्र-२) ६. ज्ञानार्णव, देलवाड़ा, वि. सं. १४८५ (१४२८ ई.) (चित्र-३) ७. 'रसिकाष्टक' भीखम द्वारा रचित वि. सं. १४६२ (१४३५ ई.)
चित्तौड़ के समिद्धेश्वर मंदिर के खम्भों पर शिलालेखों सहित १२२६ ई. के उत्कीर्ण" रेखांकन प्राप्त हुए हैं (चित्र- ४ व १). उनकी अपनी विशेषताएँ हैं। ये चित्र तत्कालीन सूत्रधार शिल्पियों के हैं और उक्त जैन या अपभ्रंश शैली में प्रथम खम्भे पर सूत्रधार आल पुत्र माउकी तथा दूसरे खम्भे पर सूत्रधार श्रीधर के उत्कीर्ण रेखांकन खड़े एवं हाथ जोड़े दिखाये गये हैं। इनसे स्पष्ट है कि ये शिल्पी तत्कालीन जैन शैली की सभी विधाओं के अच्छे ज्ञाता थे। तत्कालीन चित्रों की भांति उन्होनें एक आँख बाहर निकलते हए सवा चश्मी चेहरा, वस्त्र लहराते हुए, नुकीली नाक एवं दाढ़ी आदि का रेखांकन किया है, जो मेवाड़ भूखण्ड में कला का प्रामाणिक स्वरूप बनाने में समर्थ हुए। इन शिलोत्कीर्ण चित्रों के ऊपर तिथि युक्त पंक्तियाँ चित्रों की पुष्टि में सहायक हैं।
मेवाड़ भूखण्ड गुजरात की सीमाओं से लगा हुआ है, यहां प्रारंभ से ही जैन धर्मावलम्बियों के कई केन्द्र रहे हैं। कई जैन मंदिर बने तथा ग्रन्थ लिखे गये। इन केन्द्रों पर श्वेताम्बर संप्रदाय के सचित्र ग्रन्थ मिले हैं। महाराणा जैत्रसिंह के शासनकाल में कई ग्रन्थ लिखे गये। इनमें ओघनियुक्ति वि. सं. १२८४ मुख्य है। चित्तौड़ के एक जैन श्रेष्ठी राल्हा ने मालवा में जाकर 'कर्मविपाक' वि. सं. १२९५ में लिखाया। इसकी प्रशस्ति में नलकच्छपुर नाम स्पष्ट है जिसे नालछा
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