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केरली संस्कृति में जैन योगदान
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उन्नीसवीं सदी का उत्तरार्द्ध और बीसवीं सदी का प्रारंभ है। उन्होंने प्राचीन मलयालम और जीवकारुण्यम् जैसे ग्रंथों में नाग लोगों की संस्कृति के संबंध में पर्याप्त प्रकाश डाला है। उनके शिष्य श्री नारायण गुरु भी केरल में उनके ही समान पूज्य हैं। चट्टम्पि स्वामी जीव हिंसा के कट्टर विरोधी थे। जीवकारुण्यम् में उन्होंने लिखा है कि महान लोगों ने अहिंसा परमोधर्म का ही उपदेश दिया है। डॉ. नायर के शब्दों में, "स्वामीजी का पूर्ण विश्वास है कि परम श्रेयस्कर मोक्ष की सिद्धि अहिंसा के मार्ग पर चलकर ही हो सकती है।" केरल की ऋषि-परंपरा का उल्लेख इस जीवनी में इस प्रकार किया गया है- "ऐतिहासिक प्रमाणों से विदित है कि प्रारंभ से लेकर अखंड रूप में जो ऋषि परंपरा केरल में होती आ रही है, उसके साथ ही बौद्ध-जैन भिक्षुओं का जीवन इतिहास केरल के सांस्कृतिक इतिहास का अंश बना रहा है। असंख्य बौद्ध-जैन विहारों का ध्वंस हो चुका है और आज भी उनके आश्रम अथवा विहार मिलते हैं।" (पृ.-157) यहां यह बात ध्यान देने योग्य है कि बहुत अधिक संख्या में जैन स्मारक केरल में किसी न किसी कारण नष्ट हो चुके हैं तथा प्राचीन काल में अहिंसापूर्ण संस्कृति ही केरल की मुख्य संस्कृति थी। 8. कल्याणम्
दक्षिण भारत में, जिसमें स्पष्ट ही केरल भी शामिल है, विवाह के लिए कल्याणम् शब्द प्रचलित है। इस संस्कृत शब्द का अर्थ है- मंगल, भलाई, शुभ-कर्म आदि। इसमें विवाह का अर्थ कैसे आ गया? यदि विवाह को एक उत्सव मानें, तो इस शब्द में जो नवीन अर्थ आ गया है, उसे समझा जा सकता है। जैन परंपरा के अनुसार किसी भी तीर्थकर के पांच कल्याणक या महोत्सव होते हैं। वे इस प्रकार हैं- गर्भ, जन्म, तप, केवलज्ञान और निर्वाण। इसके अतिरिक्त जब कभी किसी मर्ति की प्राण प्रतिष्ठा की जाती है, तब भी ये उत्सव बड़ी धूमधाम से मनाए जाते हैं। प्राचीन काल में केरल सहित तमिलनाडु में जैनधर्म का बड़ा प्रभाव था। छठी-सातवीं शताब्दी में तो ऐसा लगता था कि सारा तमिल देश जैन हो जाएगा इसलिए यह संभावना सामने आती है कि इन महोत्सवों के अनुसरण पर विवाह को भी "कल्याणम्" कहा जाने लगा होगा। इस सांस्कृतिक संभावना पर भी विचार किया जा सकता है। हजारों वर्षों से केरल में प्रवाहित जैन सांस्कृतिक धारा और पुरातात्विक अवशेषों के होते हुए भी जब यह कह दिया जाता है कि जैनधर्म का केरल में कोई खास प्रभाव नहीं पड़ा तब ऐतिहासिक अनुसंधान की हानि ही होती है। जैनधर्म केरल में आज भी जीवित है। उसके अनुयायियों की वर्तमान संख्या को ध्यान में रखकर संभवतः इस प्रकार के निष्कर्ष यदि निकाले जाएं तो यह शुभ नहीं है। संस्कृति चाहे वह केरल की हो या अन्य किसी भूभाग की, वह एक समुद्र के समान है। उसमें नदियों की भांति अनेक धाराएं आकर मिलती हैं। फिर भी किसी एक ही धारा को प्रधानता देना या शुष्क धारा को आवश्यकता से अधिक महत्व देना और आज भी प्रवहमान धारा को गौण करना सांस्कृतिक इतिहास की दृष्टि से कहां तक उचित है?
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