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स्वर्ण-जयन्ती गौरव-ग्रन्थ
which is considered the vehicle of Siva is in all probability borrowed from the Jains. The Jains consider the Bull an embodiment of Dharma. It is known that the earliest Tirthankar was Rishabha. The sanctity attached to the bull was probably derived from the Jain belief." (P. 102) इस संबंध में श्री वालथ का भी यही मत है। यह स्मरणीय है कि प्रथम जैन तीर्थंकर ऋषभदेव का लांछन (पहचान चिन्ह) वृषभ या बैल है। जैन मान्यता है कि उन्होंने लोगों को खेती करना सिखाया था। इसलिए उनका चिन्ह वृषभ निर्धारित किया गया। शिव और ऋषभ में इतनी समानताएं हैं तथा वैदिक धारा के पुराणों में उनका चरित्र इतना पवित्र बताया गया है कि इस मान्यता पर विश्वास का आधार बनता है कि दोनों एक ही हैं। केवल संप्रदाय विभिन्नता के कारण दोनों के स्वरूप में कुछ अंतर आ गया है। 5. तिरुमेनी अभिवादन
केरल में परस्पर सम्मानपूर्ण अभिवादन के लिए प्रयुक्त तिरुमेनी शब्द के संबंध में डॉ. पिल्लै ने एक महत्वपूर्ण सूचना दी है जो इस प्रकार है- "It is possible that the word Tirumeni is derived from the Jain usage. In kalgumalai of Tirunelveli District, there are some Jain sculptures, the inscriptions below them end with the expression Tirumeni" (तिरुनेमि? नेमिनाथ का विहार दक्षिण में अधिक हुआ था) which means the sacred image. Tirumeni is a form of respectful address very common in the Malayalam country. It is not unlikely that this was adopted in Malyalam and Tamil from Jain practice." यह तथ्य भी तमिलनाडु और केरल में जैनधर्म के व्यापक एवं दीर्घस्थायी प्रभाव का प्रमाण प्रस्तुत करता है। 6. रत्नत्रय और मोक्षमार्ग
इतिहासकार डॉ. पिल्लै ने यह निष्कर्ष प्रस्तुत किया है कि केरली संस्कृति में जैनों के योगदान का आकलन केवल मंदिरों से ही किया जाना उचित नहीं है। उन्होंने जैनधर्म के तीन रत्नों या रत्नत्रय एवं मोक्षमार्ग का उल्लेख करते हुए जैनधर्म की रागद्वेष पर विजय, अहिंसा और अपरिग्रह की ओर भी ध्यान आकर्षित किया है। उनका मत है कि, "All these principles were adopted in Kerala as well as the rest of the country." उन्हें इस बात पर भी आश्चर्य है कि केरल में कोई प्रमुख जैन आचार्य नहीं हुआ। प्रस्तुत लेखक को भी इस पर आश्चर्य है। या तो जैन ग्रंथ नष्ट कर दिए गए या उनका अभी सर्वेक्षण ही नहीं हुआ है। जैन मंदिरों के साथ शास्त्र भंडार हुआ करता है। मंदिर में लोग उनका स्वाध्याय भी करते हैं। यदि केरल के जैन आचार्यों ने स्वयं ग्रंथ नहीं लिखे तो कम से कम कुंदकुंदाचार्य जैसे आचार्य के ग्रंथ तो उपलब्ध होने चाहिए। इस संबंध में भी अनुसंधान की आवश्यकता है। 7. जीवदयापूर्ण नाग संस्कृति
___ डॉ. चन्द्रशेखर नायर ने केरल के जातिवाद विरोधी एवं प्रमुख आधुनिक समाज सुधारक या लोगों को वर्णवाद के कठोर पंजे से मुक्ति दिलानेवाले चट्टम्पि स्वामी की एक जीवनी महर्षि श्री विद्याधिराज तीर्थपाद नाम से प्रकाशित की है। स्वामीजी का समय
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