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________________ भारतीय तन्त्र-साधना और जैन धर्म-दर्शन 233 लिए किसी देव-देवी या यक्ष-यक्षी की उपासना की जाती थी। अंतगडदसा आदि आगमों में नैगमेषदेव के द्वारा सुलसा और देवकी के छः सन्तानों के हस्तान्तरण की घटना, कृष्ण के द्वारा अपने छोटे भाई की प्राप्ति के लिए तीन दिवसीय उपवास के द्वारा नैगमेष देव की उपासना करना अथवा बहुपुत्रिका देवी की उपासना के द्वारा सन्तान प्राप्त करना आदि अनेक सन्दर्भ मिलते हैं, किन्तु इस प्रकार की उपासनाओं को जैन धर्म की स्वीकृति प्राप्त थी, यह कहना उचित नहीं होगा। प्रारम्भिक जैन धर्म, विशेषरूप से महावीर की परम्परा में तंत्र-मंत्र की साधना मुनि के लिए सर्वथा वर्जित ही मानी गई थी। प्राचीन जैन आगमों में इसको न केवल हेय दृष्टि से देखा गया, अपितु इस प्रकार की साधना करने वाले को पापश्रमण या पार्श्वस्थ तक कहा गया है। इस सम्बन्ध में सूत्रकृताङ्गसूत्र, उत्तराध्ययनसूत्र एवं दशवैकालिकसूत्र के सन्दर्भ पूर्व में दिये जा चुके हैं। आगमों में पार्श्वस्थ का तात्पर्य शिथिलाचारी साधु माना जाता है। यद्यपि महावीर की परम्परा ने प्रारम्भ में तंत्र साधना को कोई स्थान नहीं दिया, किन्तु उनके पूर्ववर्ती पार्श्व (जिनका जन्म इसी वाराणसी नगरी में हुआ था) की परम्परा के साधु अष्टांगनिमित्त शास्त्र का अध्ययन और विद्याओं की साधना करते थे, ऐसे संकेत जैनागमों में मिलते हैं। यही कारण था कि महावीर की परम्परा में पार्श्व की परम्परा के साधुओं को पार्श्वस्थ अर्थात् शिथिलाचारी कहकर हेय दृष्टि से देखा जाता था। प्राकृत में 'पासत्थ' शब्द के तीन अर्थ होते हैं- 1. पाशस्थ अर्थात् पाश में बँधा हुआ 2. पावस्थ अर्थात् पार्श्व के संघ में स्थित या 3. पावस्थ अर्थात् पार्श्व में स्थित संयमी जीवन के समीप रहने वाला। ज्ञाताधर्मकथासूत्र जैसे अंग-आगम के द्वितीय श्रृतस्कन्ध के प्रथम वर्ग में और आवश्यकनियुक्ति, आवश्यकचूर्णि और आगमिक व्याख्या ग्रन्थों में ऐसे अनेक सन्दर्भ प्राप्त होते हैं, जिनमें पाश्र्वापत्य श्रमणों और श्रमणियों द्वारा अष्टाङ्गनिमित्त एवं मंत्र-तंत्र आदि की साधना करने के उल्लेख हैं। आज भी जैन परम्परा में जो तांत्रिक साधनाएँ की जाती हैं, उनमें आराध्यदेव महावीर न होकर मुख्यतः पार्श्वनाथ अथवा उनकी शासनदेवी पद्मावती ही होती है। जैन तांत्रिक साधनाओं में पार्श्व और पद्मावती की प्रधानता स्वतः ही इस तथ्य का प्रमाण है कि पार्श्व की परम्परा में तांत्रिक साधना की प्रवृत्ति रही होगी। यह माना जाता है कि पार्श्व की परम्परा के ग्रन्थों, जिन्हें 'पूर्व' के नाम से जाना जाता है, में एक विद्यानप्रवाद पूर्व भी था। यद्यपि वर्तमान में यह ग्रन्थ अप्राप्त है, किन्तु इसकी विषय-वस्तु के सम्बन्ध में जो निर्देश उपलब्ध हैं उनसे इतना तो सिद्ध अवश्य होता है कि इसकी विषय-वस्तु में विविध विद्याओं की साधना से सम्बंधित विशिष्ट प्रक्रियाएँ निहित रही होंगी। न केवल पार्श्व की परम्परा के पूर्व साहित्य में, अपितु महावीर की परम्परा के आगम साहित्य में भी विशेष रूप से प्रश्नव्याकरणसूत्र में विविध-विद्याओं की साधना सम्बंधी सामग्री थी, ऐसी टीकाकार अभयदेव आदि की मान्यता है। यही कारण था कि योग्य अधिकारियों के अभाव में उस विद्या को पढ़ने से कोई साधक चरित्र से भ्रष्ट न हो, इसलिए लगभग सातवीं शताब्दी में उसकी विषय-वस्तु को ही बदल दिया गया। यह सत्य है कि महावीर की परम्परा में प्रारम्भ में तंत्र-मंत्र और विद्याओं की Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012064
Book TitlePrakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan Vaishali Swarna Jayanti Gaurav Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhchand Jain
PublisherPrakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan Vaishali
Publication Year2010
Total Pages520
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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