SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 250
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 232 स्वर्ण-जयन्ती गौरव-ग्रन्थ जैन धर्म सामाजिक कल्याण और सामाजिक सेवा को आवश्यक तो मानता है, किन्तु वह व्यक्ति के चारित्रिक उन्नयन से ही सामाजिक कल्याण की दिशा में आगे बढ़ता है। व्यक्ति समाज की मूलभूत इकाई है, जब तक व्यक्ति का चारित्रिक विकास नहीं होगा, तब तक उसके द्वारा सामाजिक कल्याण नहीं हो सकता है। जब तक व्यक्ति के जीवन में नैतिक और आध्यात्मिक चेतना का विकास नहीं होता तब तक सामाजिक जीवन में सुव्यवस्था और शान्ति की स्थापना नहीं हो सकती। जो व्यक्ति अपने स्वार्थों और वासनाओं पर नियंत्रण नहीं कर सकता वह कभी सामाजिक हो ही नहीं सकता, क्योंकि समाज जब भी खड़ा होता वह त्याग और समर्पण के मूल्यों पर ही होता है। लोकसेवक और जनसेवक अपने व्यक्तिगत स्वार्थों और द्वन्द्वों से दूर रहें-यह जैन आचार संहिता का आधारभूत सिद्धांत है। चरित्रहीन व्यक्ति सामाजिक जीवन के लिए घातक ही सिद्ध होंगे। व्यक्तिगत स्वार्थों की पूर्ति के निमित्त जो तांत्रिक साधनाएँ की जाती हैं, वे सामाजिक जीवन के लिए घातक ती हैं। क्या चोर. डाक और शोषकों का संगठन समाज कहलाने का अधिकारी है? क्या चोर, डाकू और लुटेरे अपने उद्देश्य में सफल होने के लिए देवी-देवताओं को प्रसन्न करने हेतु जो तांत्रिक साधना करते या करवाते हैं, उसे सही अर्थ में साधना कहा जा सकता है? महावीर की शिक्षा का सार यही है कि वैयक्तिक जीवन में निवृत्ति सामाजिक कल्याण का आधार बन सकती है। प्रश्नव्याकरणसूत्र में कहा गया है कि भगवान का यह सुकथित प्रवचन संसार के सभी प्राणियों के रक्षण एवं करुणा के लिए है। जैन साधना में अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह-ये जो पाँच व्रत माने गये हैं, वे केवल वैयक्तिक साधना के लिए नहीं है। जैन तन्त्र के दार्शनिक आधार __जैन तत्व दर्शन के अनुसार जीव कर्मों के आवरण के कारण बन्धन में है। बन्धन से मुक्ति के लिए एक ओर कर्म आवरण का क्षयोपशम आवश्यक है तो दूसरी ओर उस क्षयोपशम के लिए विशिष्ट साधना भी आवश्यक है किन्तु इस साधना के लिए बन्धन और बन्धन के कारणों का ज्ञान आवश्यक है। यह ज्ञान दार्शनिक अध्ययन से ही प्राप्त होता है। आत्मतत्व के ज्ञान के बिना साधना अधूरी रहती है। अतः जैन तंत्र में भी तांत्रिक साधना के पूर्व तत्वमीमांसा और ज्ञानमीमांसा का सम्यक् अनुशीलन आवश्यक है। इस प्रकार जैन तत्व साधना में दर्शन को महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। जैनधर्म में तान्त्रिक साधना का उद्भव एवं विकास यदि तन्त्र का उद्देश्य वासना-मुक्ति और आत्मविशुद्धि है तो वह जैन धर्म में उसके अस्तित्व के साथ ही जुड़ी हुई है। किन्तु यदि तन्त्र का तात्पर्य व्यक्ति की दैहिक वासनाओं और लौकिक एषणाओं की पूर्ति के लिए किसी देवता-विशिष्ट की साधना कर उसके माध्यम से अलौकिक शक्ति की प्राप्ति कर या स्वयं देवता के माध्यम से उन वासनाओं और आकांक्षाओं की पूर्ति करना माना जाय तो प्राचीन जैन धर्म में इसका कोई स्थान नहीं था। इसे हम प्रारम्भ में ही स्पष्ट कर चुके हैं। यद्यपि जैन आगमों में ऐसे अनेकों सन्दर्भ उपलब्ध होते हैं, जिनके अनुसार उस युग में अपनी लौकिक एषणाओं की पूर्ति के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012064
Book TitlePrakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan Vaishali Swarna Jayanti Gaurav Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhchand Jain
PublisherPrakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan Vaishali
Publication Year2010
Total Pages520
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy